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________________ समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला और आदरपूर्वक क्षमा याचना कर जैसे आया था वैसे वापस चला गया ।।९९४८।। ___ मान अपमान में और सुख दुःख में समचित्त वाले उत्तरोत्तर सविशेष बढ़ते विशुद्ध परिणाम वाले वे महासेन मुनि भी अत्यंत समाधिपूर्वक काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में तैंतीस सागरोपम की आयुष्य वाले देदीप्यमान देव हुए। फिर उसका काल धर्म हुआ जानकर, उस समय के उचित कर्त्तव्य को जानकर और संसार स्वरूप के ज्ञाता स्थविरों ने उसके शरीर को आगम विधि के अनुसार त्रस, बीज, प्राणी और वनस्पति के अंकुर आदि से रहित पूर्व में शोधन की हुई शुद्ध भूमि में सम्यक् प्रकार से परठन क्रिया की। उसके बाद उस मुनि के पात्र आदि धर्मोपकरण को लेकर अत्वरित, अचपल मध्यगति से चलते श्री गौतम स्वामी के पास पहुँचे और तीन प्रदक्षिणा देकर उनको वंदन करके उनको उपकरण सौंपकर नमे सिर वाले इस प्रकार से कहने लगे कि-हे भगवंत! क्षमापूर्वक सहन करने वाले, दुर्जय काम के विजेता, सर्व संग से रहित, सावद्य-पाप के संपूर्ण त्यागी, स्वभाव से ही सरल, स्वभाव से ही उत्तम चारित्र के पालक. प्रकति से ही विनीत और प्रकति से ही महासात्त्विक वह आपका शिष्य महात्मा महासेन दुःसह परीषहों को सम्यक सहकर पंच नमस्कार का स्मरण करते और असाधारण आराधना कर स्वर्ग को प्राप्त किया है। फिर मालती के माला समान उज्ज्वल दांत की कांति से प्रकाश करते हो इस तरह श्री गौतम स्वामी ने मधुर वाणी से स्थविरों को कहा कि-हे महानुभाव! तुमने उसकी निर्यामण सुंदर रूप में करवाई है, श्री जिनवचन के जानकार मुनिवर्य को ऐसा ही करना योग्य है। क्योंकि-संयम का पालन करने वाले असहायक को सहायता करते हैं उस कारण से साधु नमने योग्य हैं, क्योंकि अंतिम आराधना के समय में सहायता करना, इससे दूसरा कोई उत्तम उपकार निश्चिय रूप से समग्र जगत में भी नहीं है। वह महात्मा भी धन्य है कि जिसने आराधना रूपी उत्तम नाव द्वारा दुःख रूपी मगरमच्छ के समूह से व्याप्त भयंकर संसार समुद्र से समुद्र के समान पार उतरे हैं। फिर स्थविरों ने पूछा कि-हे भगवंत! वह महासेन मुनि यहाँ से कहाँ उत्पन्न हुए हैं? और कर्मों का नाशकर वह कब निर्वाणपद प्राप्त करेंगे? उसे कहो ।।९९६३।। त्रिभुवन रूपी भवन में प्रसिद्ध यशवाले श्री वीर परमात्मा के प्रथम शिष्य श्री गौतम प्रभु ने कहा कि तुम सब एकाग्र मन से सुनों-आराधना में सम्यक् स्थिर चित्तवाला वह महासेन मुनिवर इन्द्र की प्रशंसा से कुपित हुए देव ने विघ्न किया, फिर भी मेरु पर्वत के समान ध्यान से निमेष मात्र भी चलित हुए बिना काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में देदीप्यमान शरीरवाला देव हुआ है। आयुष्य पूर्ण होते ही वहाँ से च्यवकर इसी जम्बू द्वीप में जहाँ हमेशा तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव उत्पन्न होते हैं वहाँ पूर्व विदेह की विजय में इन्द्रपुरी समान मनोहर अपराजिता नगरी में, वैरी समूह को जीतने से फैली हुई कीर्तिवाले कीर्तिधर राजा की मुख से चंद्र के बिंब की तुलना करने वाली लाल होठ वाली विजयसेना नाम की रानी होगी। उसके गर्भ में, चिरकाल से उगे हुए तेजस्वी, मुख में प्रवेश करते पूर्ण चंद्र के स्वप्न से सूचित वह महात्मा पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। और नौ मास अतिरिक्त साढ़े सात दिन होने के बाद उत्तम नक्षत्र, तिथि और योग में उसका जन्म होगा। अत्यंत पुण्य की उत्कृष्टता से आकर्षित मनवाले देव, उसके जन्म समय में पास आकर सर्व दिशाओं के विस्तार को अत्यंत शांत निर्मल रज वाली और पवन की मंद-मंद हवाकर, चारों ओर लोगों को क्रीड़ा करते-करते नगर में कुंभ भर-भरकर श्रेष्ठ रत्नों की वर्षा करने लगेंगे, फिर हजारों वीरांगनाओं के द्वारा धवल मंगल को गाती, एकत्रित किये मनोहर और मणिके मनोहर अलंकार से शोभित सर्व नागरिक तथा नागरिकों के द्वारा दिये हुए अधिक धन के दान से प्रसन्न हुए याचक, याचकों से गाये जाते प्रकट गुण के विस्तार वाले, गुण विस्तार के श्रवण से हर्ष उत्सुकता से सामंत समूह को प्रसन्न करते और ऋद्धि के महान समूह की वधाई होगी। फिर उचित समय में माता-पिता ने रत्नों के 413 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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