SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार शंबूका'। काल अभिग्रह में आदि, मध्य और अंतःकाल यह तीन प्रकार का होता है। उसमें भिक्षा काल होने के पूर्व में जाना वह प्रथम, भिक्षा काल के बीच जाना वह दूसरा, और भिक्षा काल पूर्ण हो जाने के बाद जाना वह तीसरा काल जानना। माँगे बिना दे उसे ही लेना, ऐसा अभिग्रह वाले को सूक्ष्म भी अप्रीति किसी को न हो, इस आशय से भिक्षा काल के पूर्व में या बाद में भिक्षा के लिए जाना, भिक्षा काल में नहीं जाना, वह काल अभिग्रह जानना। और अमुक अवस्था में रहा हुआ आदमी भिक्षा दे तभी लूंगा, अन्यथा नहीं। लेने वाला मुनि निश्चय भाव अभिग्रह वाला होता है, तथा गीत गाते, रोते, बैठे-बैठे, आहार देवे, अथवा वापिस जाते, सन्मुख आते, उल्टे मुख करके आहार दे, अथवा अहंकार धारण किया हो तो या नहीं धारण किया हो (अर्थात् सरल हो), इस तरह अमुक अवस्था में रहे हुए आहार देवे तो लेना अन्यथा नहीं लेना इत्यादि अभिग्रह को भाव अभिग्रह कहा है। इस तरह वृत्ति संक्षेप के लिए विविध अभिग्रह को धारण करता है। अब रस त्याग कहते हैं। रस त्याग :- दूध, दही, घी, तेल आदि रसों को विगई अर्थात् विकृति कहते हैं, उसके बिना यदि संयम निर्वाह हो सके तो उसका त्याग करना वह रस त्याग जानना। क्योंकि-उन विगइयों को दुर्गति का मूल कहा है, माखन, मांस, मदिरा और मध ये चार महा विगई हैं। यह आसक्ति, अब्रह्म, अहंकार और असंयम को करने वाली हैं। पूर्व में श्री जिनाज्ञा के अभिलाषी, पापभीरु, और तप समाधि की इच्छा वाले महान् ऋषियों ने उनका जावज्जीव तक त्याग किया है। दूध, दही, घी, तेल, गुड़, कड़ा विगई2 को तथा और भी स्वादिष्टविकारी नमक, लहसुन आदि त्याग करना चाहिए। क्योंकि उससे परिणाम में विकार करनेवाला मोह का उदय होता है। जब मोह का उदय होता है, तब उदय होता है, तब मनो विजय करने में अति तत्पर भी जीव नहीं करने योग्य कार्य भी कर बैठता है। मोह यह दावानल समान है, जब मोह दावानल में जलेगा, तब जलते रहते हुए भी कौन बुझाने में उपयोगी हो सकेगा? अर्थात् जब मोह का साम्राज्य होगा, तब तुझे कोई श्रेष्ठ व्यक्ति भी समझाने में असमर्थ बनेगा। इसलिए मोह का मूल जो रस है उसका त्याग करें। अब काय क्लेश को कहते हैं। __काय क्लेश :- आगम विधि से शरीर को कसना वह काय क्लेश है। सूर्य को पीछे रखकर, सन्मुख रखकर, ऊपर रखकर अथवा तिरछा रखकर, दोनों पैर समान रखकर या एक पैर ऊँचा रखकर या गिद्ध के समान नीचे दृष्टि से लीन बनकर खड़े रहना इत्यादि, तथा वीरासन, पर्यकासन, समपूतासन एक समान बैठना, गौदोहिकासन या उत्कटुकासन करना, दण्ड के समान लम्बा सोना, सीधा सोना, उल्टा सोना और टेढ़ा काष्ठ के समान सोना, मगर के मुख समान या हाथी की सैंड के समान ऊर्ध्वशयन करना, एक तरफ शयन करना, घास ऊपर, लकड़ी के पटरे पर, पत्थर शीला पर या भूमि पर सोना। रात्री को नहीं सोना, स्नान नहीं करना, उद्वर्तन नहीं करना, खुजली आने पर भी नहीं खुजलाना। लोच करना, ठण्ड में वस्त्र रहित रहना और गर्मी में आतापना लेना इत्यादि काय क्लेश तप विविध प्रकार का जानना। स्वयं दुःख सहन करना काया का निरोध है, इससे जीवों पर दयाभाव उत्पन्न होता है, और परलोक में हित की बुद्धि है, तथा अन्य को धर्म के प्रति अतिमान प्रकट होता है इत्यादि अनेक गुण होते हैं। इस वेदना से भी अनंतर अधिक कष्टकारी वेदनाएँ नरकों में परवशता के कारण सहन करनी पड़ती हैं, उसकी अपेक्षा इसमें क्या कष्ट है? ऐसी भावना के बल से संवेग प्रकट होता है, उसकी बुद्धि, रूप, गुण वाले को यह कायक्लेश तप संसारवास पर निर्वेद उत्पन्न कराने के लिए रसायण है। अब संलीनता तप कहते हैं। 1. श्री दशवैकालिक टीका के भाषांतर में इसका विस्तृत स्वरूप देखें। 2. कड़ा विगई-घी-तेल में तला हुआ पदार्थ सेव पूडी, मालपूआ, घेवर आदि। 172 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy