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________________ समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार-तप नामक सतरतयाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला परंतु उसकी अति गुप्त चोर क्रिया के कारण अत्यंत पीड़ित नगर के लोगों ने राजा को चोर के उपद्रव की बात कही। इससे राजा ने कोतवाल को कठोर शब्द से तिरस्कारपूर्वक कहा कि यदि चोर को नहीं पकड़ोगे, तो तुमको ही दंड दिया जायगा। इससे भयभीत होते कोतवाल तीन रास्ते पर, चार रास्ते पर, चौराहा, प्याऊ, सभा आदि विविध स्थानों में चोर की खोज करने लगा। परंतु कहीं पर भी चोर की बात नहीं मिलने से वह वेश्याओं के घर देखने लगा और तलाश करते हुए वहाँ चंदन रस से सुगंधित शरीर वाले अति उज्ज्वल रेशमी वस्त्रों को धारण किये हुए और महा धनाढ्य के पुत्र के समान उस वेश्या के साथ सुख भोगते उस ब्राह्मण को देखा। इससे उसने विचार किया कि-प्रतिदिन आजीविका के अन्य घरों में भीख माँगते इसे इस प्रकार का श्रेष्ठ भोग कहाँ से हो सकता है? इसलिए अवश्यमेव यही दुष्ट चोर होना चाहिए। ऐसा जानकर कृत्रिम क्रोध से तीन रेखा की तरंगों से शोभते ललाट वाले कोतवाल ने कहा कि-विश्वासु समग्र नगर को लूटकर, यहाँ रहकर, हे यथेच्छ घुमक्कड़ अधम! तूं अब कहाँ जायगा? अरे! क्या हम तुझे जानते नहीं हैं? उन्होंने जब ऐसा कहा, तब अपने पाप कर्म के दोष से, भय से व्याकुल हुआ और 'मुझे इन्होंने जान लिया है' ऐसा मानकर उसे भागते हए पकड़ा और राजा को सौंप दिया। फिर रतिसुंदरी के घर को अच्छी तरह तलाश कर देखा तो वहाँ विविध प्रकार के चोरी का माल देखा और लोगों ने उस माल को पहचाना। इससे कुपित हुए राजा ने वेश्या को अपने नगर में से निकाल दिया और ब्राह्मण पुत्र को कुंभीपाक में मारने की आज्ञा दी। ऐसे दोष के समूहवाली स्पर्शनेन्द्रिय के वश हुए इस जन्म-परजन्म में वक्र और कठोर दुःख को प्राप्त करता है। इसलिए हे भद्र! विषयरूपी उन्मार्ग से जाते इन्द्रिय रूप अश्वों को रोककर और वैराग्य रूपी लगाम से खींचकर सन्मार्ग में जोड़ दो। स्व-स्व विषय की ओर दौड़ते इन इन्द्रिय रूपी मृग के समूह को सम्यग् ज्ञान और भावना रूपी जाल से बांध कर रखो। तथा हे धीर! दुदाँत इन्द्रिय रूपी घोड़ों का बुद्धि बल से इस तरह दमन कर कि जिससे अंतरंग शत्रुओं को उखाड़कर आराधना रूपी पताका को स्वीकार कर। इस तरह इन्द्रिय दमन नामक अंतर द्वार अल्पमात्र कहा। अब मैं तप नाम का सत्रहवाँ अंतर द्वार को कहता हूँ ।।९११८।। वह इस प्रकार है:तप नामक सतरहवा द्वार: हे क्षपक मुनि! तूं वीर्य को छुपाये बिना अभ्यंतर और बाह्य तप को कर। क्योंकि वीर्य को छुपाने वाला, माया, कषाय और वीर्यान्तराय का बंध करता है। सुखशीलता, प्रमाद और देहासक्त भाव से शक्ति के अनुसार तप नहीं करने वाला माया मोहनीय कर्म का बंध करता है। मूढ़मति जीव सुखशीलता से तीव्र अशातावेदनीय कर्म का बंध करता है। और प्रमाद के कारण चारित्र मोहनीय कर्म का बंध करता है। और देह के राग से परिग्रह दोष उत्पन्न होता है। इसलिए सुखशीलता आदि दोषों को त्यागकर नित्यमेव तप में उद्यम कर। यथाशक्ति तप नहीं ले साधओं को यह दोष लगता है और तप को करने वाले साध को इस लोक और परलोक में गणों की प्राप्ति होती है। संसार में कल्याण, ऋद्धि, सुख आदि जो कोई देव मनुष्यों को सुख और मोक्ष का जो श्रेष्ठतम सुख मिलता है वह सब तप के द्वारा मिलता है। तथा पाप रूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वज्र का दंड है, रोग रूपी महान् कुमुद वन को नाश करने में सूर्य है, काम रूपी हाथी को नाश करने में भयंकर सिंह है। भव समुद्र को पार उतरने के लिए नौका है। कुगति के द्वार का ढक्कन, मनवांछित अर्थ समूह को देने वाला और जगत में यश का विस्तार करने वाला, श्रेष्ठ एक तप को ही कहा है। इस तप का तूं महान् गुण जानकर, मन की इच्छाओं को रोककर, उत्साहपूर्वक, दिन प्रतिदिन तप द्वारा आत्मा को वासित कर। केवल शरीर को पीड़ा न हो और मांस, रुधिर की पुष्टि भी न हो तथा जिस तरह धर्म ध्यान की वृद्धि हो, उस तरह हे क्षपक मुनि! तुम तपस्या करो। 379 करनेव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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