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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार- ब्रह्मदत्त का प्रबंध यह तप नाम का अंतर द्वार कहा है। अब संक्षेप में अठारहवाँ निःशल्यता नामक अंतरद्वार को भी कहता हूँ । । ९१२९ । ।
निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार :
क्षपक मुनि! सर्व गुण शल्य रहित आत्मा में ही प्रकट होते हैं। गुण के विरोधी शल्य के तीन भेद हैं(१) नियाण शल्य, (२) माया शल्य, और (३) मिथ्या दर्शन शल्य |
(१) नियाण शल्य :- इसमें नियाण - निदान, राग से, द्वेष से और मोह से तीन प्रकार का है। राग से नियाण, रूप सौभाग्य और भोग सुख की प्रार्थना रूप है । द्वेष से नियाण तो प्रत्येक जन्म में अवश्यमेव दूसरे को मारने रूप अथवा अनिष्ट करने का जानना और धर्म के लिए हीन कुल आदि की प्रार्थना करना वह नियाणा मोह से होता है अथवा प्रशस्त, अप्रशस्त और भोग के लिए नियाणा करना वह मिथ्या दर्शन है। इन तीनों प्रकार के नियाणे को तुझे छोड़ने योग्य है। इसमें संयम के लिए पराक्रम, सत्त्व, बल, वीर्य, संघयण, बुद्धि, श्रावकत्व, स्वजन, कुल आदि के लिए जो नियाणा होता है, वह प्रशस्त माना गया है। एवं नंदिषेण के समान, सौभाग्य, जाति, कुल, रूप आदि का और आचार्य, गणधर अथवा जैनत्व की प्रार्थना करना, वह अभिमान से होने के कारण अप्रशस्त निदान माना गया है। क्रोध के कारण मरकर यदि दूसरे को वध करने की प्रार्थना करे, द्वारिका के विनाश करने की बुद्धि वाला द्वैपायन के समान उसे अप्रशस्त जानना । देव या मनुष्य के भोग, राजा, ऐश्वर्यशाली, सेठ या सार्थवाह, बलदेव तथा चक्रवर्ती पद माँगनेवाले को भोगकृत नियाणा होता है। पुरुषत्व आदि निदान प्रशस्त होने पर भी यहाँ निषेध किया है, वह अनासक्त मुनियों के कारण जानना, अन्य के लिए नहीं है। दुःखक्षय, कर्मक्षय, समाधि मरण और बोधि लाभ इत्यादि प्रार्थना भी सरागी अवश्य कर सकता है। संयम के शिखर में आरूढ़ होने वाला, दुष्कर तप को करनेवाला और तीन गुप्ति से गुप्त आत्मा भी परीषह से पराभव प्राप्त कर और अनुपम शिव सुख की अवगणना करके जो अति तुच्छ विषय सुख के लिए इस तरह नियाणा करता है, वह काँच मणि के लिए वैडूर्य मणि का नाश करता है। नियाणा (निदान) करने के कारण आरंभ में मधुर और अंत में विरस सुख को भोगकर ब्रह्मदत्त के समान जीव बहुत दुःखमय नरक रूपी खड्डे में गिरता है ।।९१४२ ।। उसकी कथा इस प्रकार है :
ब्रह्मदत्त का प्रबंध
साकेत नामक श्रेष्ठ नगर में चंद्रावतंसक नाम का राजा राज्य करता था । उसे मुनिचंद्र नाम का पुत्र था। उसने सागरचंद्र आचार्य के पास दीक्षा स्वीकार की और सूत्र अर्थ का अभ्यास करते दुष्कर तप कर्म करने लगा। दूर देश में जाने के लिए गुरु के साथ चला और एक गाँव में भिक्षार्थ गये वहाँ किसी कारण से अलग हुआ, फिर अकेले चलने लगा और अटवी में मार्ग भूल गया, वहाँ भूख, प्यास और थकावट से अत्यंत पीड़ित हुआ, उसकी ग्वालों के चार बालकों ने प्रयत्नपूर्वक सेवा की, इससे स्वस्थ हुए शरीर वाले उन्होंने बच्चों को धर्म समझाया। उन सबने प्रतिबोध प्राप्त किया और उस साधु के शिष्य हुए। वे चारों साधु धर्म का पालन करते थे, परंतु उसमें दो दुर्गंच्छा करके मरकर तप के प्रभाव से देवलोक में देवता हुए। समय पूर्ण होते वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके दशपुर नगर में संडिल नामक ब्राह्मण और उसकी यतिमति नामक दासी की कुक्षी से दोनों युगल पुत्र रूप में जन्में और क्रमशः बुद्धि-बल, यौवन से सम्यग् अलंकृत हुए। किसी समय खेत के रक्षण के लिए अटवी में गये और वहाँ रात्री में वड़ वृक्ष के नीचे सोये। वहाँ उन दोनों को सर्प ने डंक लगाया। औषध के अभाव में मरकर
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