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________________ समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार- ब्रह्मदत्त का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला कालिंजय नामक जंगल में दोनों साथ में जन्म लेने वाले मृग हुए। स्नेह कारण साथ ही चरते थे, अशरण रूप उन दोनों को शिकारी ने एक ही बाण के प्रहार से मारकर यम मंदिर पहुँचा दिया। वहाँ से गंगा नदी के किनारे दोनों का युगल हंसरूप में जन्म हुआ। वहाँ भी मच्छीमार ने एक ही बंधन से दोनों को बाँधा और निर्दय मनवाले उसने गरदन मरोड़कर मार दिया। वहाँ से वाराणसीपुरी में बहुत धन धान्य से समृद्धशाली, चंडाल का अग्रेसर भूतदिन्न नामक चंडाल के घर परस्पर दृढ़ स्नेहवाले चित्र और सम्भूति नाम से दोनों पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। एक समय इसी नगर के शंख नामक राजा के नमुचि नामक मंत्री ने महा अपराध किया। क्रोधित हुए राजा ने लोकापवाद से बचने के लिए गुप्त रूप में मारने के लिए चंडालों के अग्रेसर उस भूतदिन को आदेश दिया। उस नमुचि को वध के स्थान पर ले जाकर कहा कि- 'यदि भोयरें में रहकर मेरे पुत्रों को अभ्यास करवाओगे तो तुझे मैं छोड़ देता हूँ।' जीने की इच्छा से उसने वह स्वीकार किया और फिर पुत्रों को पढ़ाने लगा। परंतु मर्यादा छोड़कर उनकी माता चंडालिणी के साथ व्यभिचार सेवन किया। उसे चंडाल के अग्रेसर भूतदिन्न ने 'यह जार है' ऐसा जानकर मार देने का विचार किया । परम हितस्वी के समान चित्र, संभूति ने उसे एकांत में अपने पिता के मारने का अभिप्राय बतलाया। इससे रात्री में नमुचि भागकर हस्तिनापुर नगर में गया और वहाँ सनत्कुमार चक्रवर्ती का मंत्री हुआ। इधर गीत नृत्यादि में कुशल बने उस चंडाल पुत्र चित्र, संभूति ने वाराणसी के लोगों को गीत, नृत्य से अत्यंत परवश कर दिया। अन्य किसी दिन जब नगर में कामदेव का महोत्सव चल रहा था। उस समय चौराहे आदि स्थानों में स्त्रियाँ विविध मंडलीपूर्वक गीत गाने लगीं, और तरुण स्त्रियाँ नृत्य करने लगीं, तब वहाँ अपनी मंडली में रहे वे चित्र, संभूति भी अत्यंत सुंदर गीत गाने लगे। उनके गीत और नृत्य से आकर्षित सारे लोग और उसमें विशेषतया युवतियाँ चित्र, संभूति के गीत सुनकर उसके पीछे दौड़ीं। इससे ईर्ष्या के कारण ब्राह्मण आदि नगर के लोगों ने राजा को विनती की कि - हे देव! निःशंकता से फिरते इन चंडाल पुत्रों ने नगर के सारे लोगों को जाति भ्रष्ट कर दिये हैं, इससे राजा ने उनका नगर प्रवेश बंद करवा दिया। फिर अन्य दिन कौमुदी महोत्सव प्रारंभ हुआ। इन्द्रियों की चपलता से और कुतूहल से उन्होंने सुंदर श्रृंगार करके राजा की आज्ञा की अवहेलनाकर बुरखा ओढकर नगर में प्रवेशकर एक प्रदेश में रहकर हर्षपूर्वक गाने लगे और गीत से आकर्षित हुए लोग उसके चारों तरफ खड़े हो गये। इससे अत्यंत सुंदर स्वर वाले ये कौन हैं? इस तरह जानने के लिए मुख पर से वस्त्र दूर करते यह जानकारी हुई कि - ये तो वे चंडाल पुत्र हैं इससे क्रोधित होकर लोगों ने 'मारो, मारो' इस प्रकार बोलते चारों तरफ से अनेक प्रकार लकड़ी, ईंट, पत्थर आदि से मारने लगे। मार खाते वे महा मुश्किल से नगर के बाहर निकले और अत्यंत संताप युक्त विचार करने लगे कि रूपादि समग्र गुण समूह होते हुए भी हमारे जीवन को धिक्कार है कि जिससे निंद्य जाति के कारण इस तरह हम तिरस्कार के पात्र बने हैं। अतः वैराग्य प्राप्तकर उन्होंने मरने का निश्चयकर स्वजन बंधु आदि को कहे बिना दक्षिण दिशा की ओर चले। मार्ग में जाते उन्होंने एक ऊँचे पर्वत को देखा और मरने के लिए ऊपर चढ़ते उन्होंने एक शिखर के ऊपर घोर तप से सूखी हुई काया वाले परम धर्मध्यान में प्रवृत्त कायोत्सर्ग मुद्रा में रहे एक मुनि को हर्षपूर्वक देखा। उन्होंने भक्ति पूर्वक साधु के पास जाकर वंदन किया और मुनि ने भी योग्यता जानकर ध्यान पूर्ण करके पूछा कि तुम कहाँ से आये हो? उन्होंने भी उस साधु को पूर्व की सारी बातें कह दी और पर्वत से गिरकर मरने का संकल्प भी कहा। तब मुनि ने कहा किमहानुभाव! ऐसा विचार सर्वथा अयोग्य है यदि वास्तविक वैराग्य जागृत हुआ हो, तो साधु धर्म स्वीकार करो। उन्होंने यह स्वीकार किया और अपने ज्ञान के बल उनको योग्य जानकर मुनिश्रीजी ने दीक्षा दी। Jain Education International For Personal & Private Use Only 381 www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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