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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार ब्रह्मदत का प्रबंध कालक्रम से वे गीतार्थ बनें, और दुष्कर तप करने में तत्पर वे विचरते किसी समय हस्तिनापुर पहुँचे। और एक उपवन में रहे फिर एक महीने के तप के पारणे के दिन संभूति मुनि ने भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश किया। वहाँ नमुचि ने उसे देखा और पूर्व परिचय के खयाल में 'यह मेरा दुराचरण लोगों को कहेगा' ऐसा मानकर अत्यंत कुविकल्प के वश होकर उसने अपने पुरुषों को भेजकर लकड़ी, मुक्के आदि अनेक प्रकार से मारकर निरपराधी उस मुनि को नगर से बाहर निकाल दिया। इससे मुनि को प्रचंड क्रोध उत्पन्न हुआ। उस मुनि के मुख में से मनुष्यों को जलाने के लिए महाभयंकर तेजोलेश्या - आग निकलने लगी और काले बादल के समान धुआँ फैलने लगा, नगर में अंधकार छा गया। चक्रवर्ती को कारण ज्ञात होने पर चक्रवर्ती और लोग उस मुनि को शांत करने लगे। परंतु जब वे शांत नहीं हुए तब लोगों से यह बात सुनकर शीघ्र ही चित्र मुनि वहाँ आयें और उसे मधुरवाणी से कहने लगे कि - भो ! भो ! महायश! श्री जिनवचन को जानकर भी तुम क्रोध क्यों कर रहे हो ? क्रोध से अनंत भव का हेतुभूत संसार भ्रमण होगा, उसे तूं नहीं जानता है? अथवा अपकार करने वाले बिचारे नमुचि का क्या दोष है? क्योंकि जीव के दुःख और सुख में उसके कर्म ही कारण है । इत्यादि प्रशम रस से भरे अमृत समान उत्तम वचनों से शांत कषाय वाले संभूति मुनि उपशांत हुए और वे दोनों मुनि उद्यान में गये। वहाँ अनशन को स्वीकार कर दोनों एक प्रदेश में बैठे। फिर सनत् कुमार चक्रवर्ती ने अंतःपुर के साथ आकर भक्तिपूर्वक उनके चरणकमलों में नमस्कार किया, और उसकी मुख्य पट्टरानी ने भी नमस्कार किया उस समय स्त्री रत्न के मस्तक के केश का स्पर्श मुनि को हो गया और उसके केश द्वारा सुख स्पर्श का अनुभव करते संभूति मुनि ने कहा कि यदि इस तप का फल हो तो मैं जन्मांतर में चक्रवर्ती बनूँ। उसे चित्र मुनि ने संसार विपाक को बतानेवाले वचनों से अनेक बार समझाया, फिर भी उसने उसी तरह निदान का बंध किया। आयुष्य का क्षय होने पर दोनों सौधर्म देवलोक में देदीप्यमान देव हुए। वहाँ से च्यवकर चित्र पुरिमताल नगर में धनवान के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और संभूतिकंपिलपुर में ब्रह्म राजा की चूलणी रानी से पुत्र रूप में जन्म लिया। फिर शुभ दिन में उसका ब्रह्मदत्त नाम रखा, क्रमशः वह चक्रवर्ती बना । । ९२०० । । फिर भरत चक्री के समान जब समग्र भरत की साधनाकर वह विषय सुख भोगने लगा, तब एक समय उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ, पूर्व जन्म के भाई को जानने के लिए दास आदि पाँच जन्मों का वर्णन वाला आधा श्लोक बनाया।
आस्व दासौ मृगौ हंसौ मातंगावमरौ तथा
अर्थात् : 'हम दोनों दास, मृग, हंस, चंडाल और देव थे' फिर लोगों को दिखाने के लिए उसे राजद्वार पर लटकाकर यह उद्घोषणा करवाई कि यदि इसका उत्तरार्ध श्लोक जो पूर्ण करेगा उसे मैं आधा राज्य दूँगा। इधर उस पूर्व के चित्र जीव को जाति स्मरण ज्ञान होने से घर बार का त्यागकर सम्यग् दीक्षा को स्वीकारकर अप्रतिबद्ध विहार करते उस नगर में आये और श्रेष्ठ धर्म ध्यान से तल्लीन एक उद्यान में एक ओर रहे। उस समय वहाँ एक रहट चलाने वाले के मुख से वह आधा श्लोक सुना और उपयोग वाले मुनि ने भी उसे समझकर उसका उत्तरार्द्ध श्लोक इस प्रकार कहा :
एषा नौ षष्टिका जाति- रन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ।
अर्थात् :― 'यह हमारा छट्ठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से अलग हुए हैं।' मुनि के मुख से आधा श्लोक की उत्तरार्द्ध पंक्ति सुनकर रहट चलानेवाले ने राजा के पास जाकर उस श्लोक का उत्तरार्द्ध सुनाकर श्लोक पूरा कर दिया। उसे सुनकर भाई के स्नेह वश राजा मूर्च्छित हो गया। इससे राजपुरुषों ने 'यह राजा का अनिष्टकारक है' ऐसा मानकर रहट वाले को मारने लगे। मार खाते उसने कहा कि मुझे मत मारो यह उत्तरार्द्ध
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