________________
समाधि लादार-नि:शल्यता नामक अठारहवाँ द्वार-पीट, महापीट मुनियों की कथा
श्री संवेगरंगशाला
मुनि ने रचा है। इतने में राजा ने चेतना में आकर सुना। अतः सर्व संपत्ति सहित वह साधु के पास गया और अतीव स्नेह राग से उनके चरणों में नमस्कार कर वहाँ बैठा। मुनि ने सद्धर्म का उपदेश दिया, उसकी अवगणना करके चक्रवर्ती ने साधु को कहा कि-हे भगवंत! कृपा करके राज्य स्वीकार करो, विषय सुख भोगो और दीक्षा छोड़ो। पूर्व के समान हम साथ में ही समय व्यतीत करें। मुनि ने कहा कि-हे राजन्! राज्य और भोग ये दुर्गति के मार्ग हैं, इसलिए जिनमत के रहस्य को जानकर तूं इसे छोड़कर जल्दी दीक्षा स्वीकार कर जिससे साथ में ही तप का आचरण करें, राज्य आदि सभी सुखों से क्या लाभ है? राजा ने कहा कि भगवंत! प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर परोक्ष के लिए बेकार क्यों दुःखी होते हो? जिससे मेरे वचन का इस तरह विरोध करते हो? फिर चित्र मुनि ने सोचा निदान रूप दुश्चेष्टित के प्रभाव से राजा को समझाना दुष्कर है। ऐसा जानकर धर्म कहने से रुके।
और काल क्रम से कर्ममल को नाश करके शाश्वत स्थान मोक्ष को प्राप्त किया। चक्री भी अनेक पापों से अंत समय में रौद्र ध्यान में पड़ा और आयुष्य पूर्ण कर सातवीं नरक में उत्कृष्ट आयुष्य वाला नरक का जीव हुआ। इस प्रकार के दोषों को करनेवाला निदान का, हे क्षपक मुनि! तूं त्याग कर। इस तरह निदान शल्य कहा है, अब माया शल्य तुझे कहता हूँ।
(२) माया शल्य :- जो चारित्र विषय में अल्प भी अतिचार को लगाकर बड़प्पन, लज्जा आदि के कारण गुरु राज के समक्ष आलोचना नहीं करता अथवा केवल आग्रहपूर्वक पूछने पर आलोचना करें, वह भी सम्यग् आलोचना नहीं करता, परंतु मायायुक्त करता है। इस प्रकार के माया शल्य का त्याग किये बिना तप में रागी और चिरकाल तप का कष्ट सहन करने पर भी आत्मा को उसका शभ फल नहीं मिलता। इसीलिए चिरकाल तक श्रेष्ठ दुष्कर तप करने वाले भी उस निदान के कारण पीठ और महापीठ दोनों तपस्वी को स्त्रीत्व प्राप्त हुआ। वह इस प्रकार :
पीठ, महापीठ मुनियों की कथा पूर्व काल में श्री ऋषभदेव भगवान का जीव निज कुल में दीपक के समान वैद्य का पुत्र था। वह राजा, मंत्री, सेठ और सार्थपति इन चारों के चार पुत्र उसके मित्र हुए। एक समय शुभ धर्मध्यान में निश्चल लीन परंतु कोढ़ के कीड़ों से क्षीण हुए साधु को देखकर भक्ति प्रकट हुई और उस वैद्य पुत्र ने उस साधु की चिकित्सा की । इससे श्रेष्ठ पुण्यानुबंधी समूह को प्राप्त किया और आयुष्य का क्षय होते प्राण का त्याग करके श्री सर्वज्ञ परमात्मा के धर्म के रंग से तन्मय धातु वाले वह वैद्य पुत्र चारों मित्रों के साथ अच्युत देवलोक में अति उत्तम ऋद्धिवाले देव हुए। फिर उन पाँचों ने स्वर्ग से च्यवकर इसी जम्बू द्वीप के तिलक की उपमा वाला, कुबेर नगर के समान शोभित पूर्व विदेह का शिरोमणि श्री पुंडरिकीणी नाम की नगरी में इन्द्र से पूजित चरण कमल वाले श्री वज्रसेन राजा की निर्मल गुणों को धारण करने वाली जग प्रसिद्ध धारिणी रानी की कुक्षि से अनुपम रूप सहित पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, और अप्रतिम श्रेष्ठ गुण रूप लक्ष्मी के उत्कर्ष वाले वे उत्तम कुमार क्रमशः वृद्धि करते यौवन अवस्था प्राप्त की। उसमें से नगर की परिघ समान लम्बी, स्थिर और विशाल भुजाओं वाला प्रथम श्री वज्रनाभ चक्री, दूसरा बाहु कुमार, तीसरा सुबाहु कुमार, चौथा पीठ और पांचवाँ गुणों में लीन महापीठ नाम से प्रसिद्ध हुए। फिर पूर्व में बंध किये श्री तीर्थंकर नामकर्म वाले देवों द्वारा नमस्कार होते श्री वज्रसेन राजा ने अपना पद श्रेष्ठ चक्रवर्ती की लक्ष्मी से युक्त वज्रसेन को दिया, और स्वयं राज्य का त्यागकर पाप का नाश कर आनंद के आंसु झरते देव, दानवों के समूह द्वारा स्तुति होते सैंकड़ों राजाओं के साथ उत्तम साधु बनें। फिर मोह के महासैन्य को जीतकर केवल ज्ञान प्राप्त कर सूर्य के समान भव्य जीवों को प्रतिबोध करते पृथ्वी मंडल को शोभायमान करते,
383
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org