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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-तापस सेट की कथा युवान भी मरकर वहीं अपने शरीर में ही कीड़े रूप में उत्पन्न होता है और जहाँ माता भी पशु आदि में जन्म लेकर अपने पूर्व पुत्र का मांस भी खाती हैं। अरे! दुष्ट संसार में ऐसा भी अन्य महाकष्ट कौन-सा है? स्वामी भी सेवक और सेवक भी स्वामी, निजपुत्र भी पिता होता है और वहाँ पिता भी वैर भाव से मारा जाता है, उस संसार स्वरूप को धिक्कार हो। इस प्रकार विविध आश्रवों का भंडार इस संसार के विषय में कितना कहूँ? कि जहाँ जीव तापम सेठ के समान चिरकाल दुःखी होता है।।८६३३।। वह इस प्रकार :
तापस सेठ की कथा कौशाम्बी नगरी में सद्धर्म से विमुख बुद्धि वाला अति महान् आरंभ करने में तत्पर अति प्रसिद्ध तापम नामक सेठ रहता था। घर की मूर्छा से अति आसक्त वह मरकर अपने ही घर में सूअर रूप में उत्पन्न हुआ और उसे वहाँ पूर्व जन्म का स्मरण हुआ। किसी समय उसके पुत्र ने उसके ही पुण्य के लिए बड़े आडंबर से वार्षिक मृत्यु तिथि मनाने का प्रारंभ किया और स्वजन, ब्राह्मण, सन्यासी आदि को निमंत्रण दिया, फिर उसके निमित्त भोजन बनाने वाली ने मांस पकवाया और उसे बिल्ली आदि ने नाश किया, अतः घर के मालिक से डरी हुई उसने दूसरा मांस नहीं मिलने से उसी सूअर को मारकर मांस पकाया। वहाँ से मरकर वह पुनः उसी घर में सर्प हुआ और भोजन बनाने वाली को देखकर मृत्यु के महाभय के कारण आर्त ध्यान करते उसे पूर्व जन्म का स्मरण हुआ। भोजन बनाने वाली उस स्त्री ने उसे देखकर कोलाहल मचाया, लोग एकत्रित हुए और उस सर्प को मार दिया। वह सर्प मरकर पुनः अपने पुत्र का ही पुत्र रूप में जन्म लिया और पूर्व जन्म का स्मरणकर इस तरह विचार करने लगा कि-मैं अपने पुत्र को पिता और पुत्रवधू को माता कैसे कहूँ? यह संकल्पकर वह मौनपूर्वक रहने लगा। समय जाने के बाद उस कुमार ने यौवन अवस्था प्राप्त की। उस समय विशिष्ट ज्ञानी धर्मरथ नाम के आचार्य उसी नगर के उद्यान में पधारें और ज्ञान के प्रकाश से देखा कि-यहाँ कौन प्रतिबोध होगा? उसके बाद उन्होंने उस मौनव्रती को ही योग्य जाना, इससे दो साधुओं को उसके पूर्व जन्म के संबंध वाला श्लोक सिखाकर प्रतिबोध करने के लिए उसके पास भेजा, और उन्होंने वहाँ जाकर इस प्रकार से श्लोक उच्चारण कियातावस किमिणा मोणव्वएण पडिवज्ज जाणिउं धम्मं । मरिऊण सयरोरग, जाओ पत्तस्स पत्तोत्ति।।८६४६।।
अर्थात्-हे तापस! इस मौनव्रत से क्या लाभ है? तूं मरकर सूअर, सर्प और पुत्र का पुत्र हुआ है, ऐसा जानकर धर्म को स्वीकार कर।
फिर अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनकर प्रतिबोध प्राप्तकर उसने उसी समय आचार्य श्री के पास जाकर श्री तीर्थंकर परमात्मा का धर्म स्वीकार किया।
इस विषय पर अब अधिक क्या कहें? यदि जीव धर्म नहीं करेगा तो संसार में कठोर लाखों दुःखों को प्राप्त करता है और प्राप्त करेगा। इसलिए हे क्षपकमुनि! महादुःख का हेतुभूत संसार के सद्भूत पदार्थों की भावना में इस तरह उद्यम कर कि जो प्रस्तुत आराधना को लीलामात्र से साधन कर सके। यह संसार वस्तुओं के अनित्यता से अलभ्य अशरण रूप है, इसी कारण से जीवों का एकत्व है। इसलिए प्रति समय बढ़ते संवेग वाले तूं ममता को छोड़कर हृदय में तत्त्व को धारण करके एकत्व भावना का चिंतन कर। वह इस प्रकार :
(४) एकत्व भावना :- आत्मा अकेली ही है, एक उसके मध्यस्थ भाव बिना शेष सर्व संयोग जन्य प्रायःकर दुःख के कारण रूप है। क्योंकि संसार में सुख या दुःख को अकेला ही भोगता है, दूसरा कोई उसका नहीं है और तूं भी अन्य किसी का नहीं है। शोक करते स्वजनों के मध्य से वह अकेला ही जाता है। पिता, पुत्र,
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