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________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-श्री महावीर प्रभु का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला स्त्री या मित्र आदि कोई भी उसके पीछे नहीं जाता है। अकेला ही कर्म का बंध करता है और उसका फल भी अकेला ही भोगता है। अवश्यमेव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, और जन्मांतर में अकेला ही जाता है। कौन किसके साथ में जन्मा है? और कौन किसके साथ में परभव में गया है? कौन किसका क्या हित करता है? और कौन किसका क्या बिगाड़ता है? अर्थात् कोई किसी का साथ नहीं देता, स्वयं अकेला ही सुख दुःख भोगता है। अज्ञानी मानव परभव में गये अन्य मनुष्य का शोक करते हैं, परंतु संसार में स्वयं अकेला दुःखों को भोगते अपना शोक नहीं करता है। विद्यमान भी सर्व बाह्य पदार्थों के समूह को छोड़कर शीघ्र परलोक से इस लोक में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। नरक में अकेला दुःखों को सहन करता है, वहाँ नौकर और स्वजन नहीं होते हैं। स्वर्ग में सुख भी अकेला ही भोगता है, वहाँ उसके दूसरे स्वजन नहीं होते हैं। संसार रूपी कीचड़ में अकेला ही दुःखी होता है, उस समय उस बिचारे के साथ सुख दुःख को भोगनेवाला अन्य कोई इष्ट जन नजर भी नहीं आता है। इसलिए ही कठोर उपसर्गों के दुःखों में भी मुनि दूसरे की सहायता की इच्छा नहीं करते हैं, परंतु श्री महावीर प्रभु के समान स्वयं सहन करते हैं।।८६६१।। वह इस प्रकार : श्री महावीर प्रभु का प्रबंध अपने जन्म द्वारा तीनों लोक में महामहोत्सव प्रकट करने वाले, एवं प्रसिद्ध कुंडगाँव नामक नगर के स्वामी सिद्धार्थ महाराज के पुत्र श्री महावीर प्रभु ने भक्ति के भार से नमते सामंत और मंत्रियों के मुकुटमणि से स्पर्शित पादपीठ वाले और आज्ञा पालन करने की इच्छा वाले, सेवक तथा मनुष्यों के समूहवाले राज्य को छोड़कर दीक्षा ली। उस समय जय-जय शब्द करते एकत्रित हुए देवों ने उनकी विस्तार से पूजा भक्ति की और उन्होंने प्रेम से नम्र भाव रखने वाले स्वजन वर्ग को छोड़ दिया, फिर दीक्षा लेकर दीक्षा के प्रथम दिन ही कुमार गाँव के बाहर प्रदेश में काउस्सग्ग ध्यान में रहे उस प्रभु को कोई पापी गवाले ने इस प्रकार कहा कि-हे देवार्य! मैं जब तक घर जाकर नहीं आता तब तक तुम मेरे इन बैलों को अच्छी तरह से देखते रहना। काउस्सग्ग ध्यान में रहे जगत् गुरु को ऐसा कहकर वह चला गया। उस समय यथेच्छ भ्रमण करते बैलों ने अटवी में प्रवेश किया, इधर क्षणमात्र में गवाला आया, तब वहाँ बैल नहीं मिलने से भगवान से पूछा-मेरे बैल कहाँ गये हैं? उत्तर नहीं मिलने से दुःखी होता वह सर्व दिशाओं में खोजने लगा। वे बैल भी चिरकाल तक चरकर प्रभु के पास आये और गवाला भी रात भर भटककर वहाँ आया, तब जुगाली करते अपने बैलों को प्रभु के पास देखा, इससे निश्चय ही देवार्य ने हरण करने के लिए इन बैलों को छुपाकर रखा था अन्यथा मेरे बहुत पूछने पर भी क्यों नहीं बतलाया? इस प्रकार कुविकल्पों से तीव्र क्रोध प्रकट हुआ और वह गवाला अति तिरस्कार करते प्रभु को मारने दौड़ा। उसी समय सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से प्रभु की ऐसी अवस्था देखकर तर्क वितर्क युक्त मन वाला शीघ्र स्वर्ग से नीचे आया और गवाले का तीव्र तिरस्कार करके प्रभु की तीन प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करके ललाट पर अंजलि करके भक्तिपूर्वक कहने लगा ___ आज से बारह वर्ष तक आपको बहुत उपसर्ग होंगे, अतः मुझे आज्ञा दीजिए कि जिससे शेष कार्यों को छोड़कर आपके पास रहूँ। मैं मनुष्य, तिर्यंच और देवों के द्वारा उपसर्गों का निवारण करूँगा। जगत् प्रभु ने कहा कि-हे देवेन्द्र! तूं जो कहता है, परंतु ऐसा कदापि नहीं होता, न हुआ है और न ही होगा। संसार में भ्रमण करते जीवों को जो स्वयं ने पूर्व में स्वेच्छाचारपूर्वक दुष्ट कर्म बंध किया हो, उसकी निर्जरा के लिए स्वयं उसको भोगता है, अथवा दुष्कर तपस्या के बिना किसी की सहायता नहीं होती है। कर्म के आधीन पड़ा जीव अकेला ही सुख दुःख का अनुभव करता है, अन्य तो उसके कर्म के अनुसार ही उपकार या अपकार करने वाला निमित्त मात्र 361 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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