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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-सुलस और शिवकुमार की कथा होता है। प्रभु के ऐसा कहने से इन्द्र नम गया। और त्रिभुवन नाथ प्रभु भी अकेले स्वेच्छापूर्वक दुस्सह परीषहों को सहने लगे। इस प्रकार यदि चरम जिन श्री वीर परमात्मा ने भी अकेले ही दुःख सुख को सहन किया तो हे क्षपक मुनि! तूं एकत्व भावना का चिंतन करने वाला क्यों नहीं हो? इस प्रकार निश्चय स्वजनादि विविध बाह्य वस्तुओं का संयोग होने पर भी तत्त्व से जीवों का एकत्व है। इस कारण से उनका परस्पर अन्यत्व-अलग-अलग रूप है। जैसे कि (५) अन्यत्व भावना :- स्वयं किये कर्मों का फल भिन्न-भिन्न भोगते जीवों का इस संसार में कौन किसका स्वजन है? अथवा कौन किसका परजन भी है? जीव स्वयं शरीर से भिन्न है, इन सारे वैभव से भी भिन्न है और प्रिया अथवा प्रिय पिता, पुत्र, मित्र और स्वजनादि वर्ग से भी अलग है, वैसे ही जीव इन सचित्त, अचित्त वस्तुओं के विस्तार से भी अलग है। इसलिए उसे अपना हित स्वयं को ही करना योग्य है। इसीलिए ही नरक जन्य तीक्ष्ण दुःखों से पीड़ित अंग वाले सुलस नामक बड़े भाई को शिवकुमार ने शिक्षा दी थी ।।८६८६ ।। वह इस प्रकार सुलस और शिवकुमार की कथा दशार्णपुर नामक नगर में परस्पर अतिस्नेह से प्रतिबद्ध दृढ़ चित्तवाले सुलस और शिवकुमार दो भाई रहते थे, परंतु प्रथम सुलस अति कठोर कर्म बंध करने वाला था, अतः उसे हेतु दृष्टांत और युक्तियों से समझाया फिर भी वह श्री जिन धर्म में श्रद्धावान नहीं हुआ। दूसरा शिवकुमार अतीव लघु कर्मी होने से श्री जिनेश्वर भगवान के धर्म को प्राप्त कर साधु सेवा आदि शिष्टाचार में प्रवृत्ति करता था। और पाप में अति मन लगाने वाले बड़े भाई को हमेशा प्रेरणा देता कि-हे भाई! तूं अयोग्य कार्यों को क्यों करता है? छिद्र वाली हथेली में रहे पानी के समान हमेशा आयुष्य खत्म होते और क्षण-क्षण में नाश होते शरीर की असुंदरता को तूं क्यों नहीं देखता है? अथवा शरदऋतु के बादल की शोभा, बिखरती लक्ष्मी को तथा नदी के तरंगों के समान नाश होते प्रियजन के संगम को भी क्यों नहीं देखता? अथवा प्रतिदिन स्वयं मरते भाव समूह को और बड़े समुद्र के समान विविध आपदाओं में डूबते जीवों को क्या नहीं देखता? कि जिससे यह नरक निवास का कारणभूत घोर पापों का आचरण कर रहा है। और तप. दान. दया आदि धर्म में अल्प भी उद्यम नहीं करता है? तब सुल तुम धूर्त लोगों से ठगे गये हो कि जिसके कारण तुम दुःख का कारण भूत तप के द्वारा अपनी काया को शोष रहे हो। और अनेक दुःख से प्राप्त हुए धन को हमेशा तीर्थ आदि में देते हो और जीव दया में रसिक मन वाले म पैर भी पृथ्वी पर नहीं रखते। ऐसी तेरी शिक्षा मुझे देने की अल्प भी जरूरत नहीं है। कौन प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर आत्मा के अप्रत्यक्ष सुख में गिरे? इस तरह हंसी युक्त भाई के वचन सुनकर दुःखी हुआ और शिवकुमार ने वैराग्य धारण करते सद्गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की, और अति चिरकाल तक उग्र तप का आचरण कर काल धर्म प्राप्त कर कृत पुण्य वह अच्युत कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। सुलस भी विस्तारपूर्वक पाप करके अत्यंत कर्मों का बंधकर मरकर तीसरी नरक में नारकी का जीव हुआ ।।८७०० ।। और वहाँ कैद में डाला हो वैसे करुण विलाप करते परमाधामी देवों द्वारा हमेशा जलाना, मारना, बांधना इत्यादि अनेक दुःखों को सहन करने लगा। फिर अवधि ज्ञान से उसको इस प्रकार का दुःखी देखकर पूर्व स्नेह से वह शिवकुमार देव उसके पास आकर कहने लगा कि-हे भद्र! क्या तूं मुझे जानता है कि नहीं इससे वह संभ्रमपूर्वक बोला कि मनोहर रूप धारक तुझ देव को कौन नहीं जानता? तब देव ने पूर्व जन्म का रूप उसको 362 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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