SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-समाधि नामक पाँचवा द्वार और उसकी महिमा भावपूर्वक विनय करने से मिलती है, तो समस्त मनोवांछित प्रयोजन के साधन में समर्थ श्री जिन कथित विद्य (ज्ञान) ग्रहण करने में उसके दातार प्रति विनय नहीं करने वाला किस तरह पंडित हो सकता है? अर्थात् कभी भी नहीं हो सकता। और जिस विनय से धीर - विनीत पुरुषों को पत्थर के गढ़े हुए रागी देव भी सहायता करने में तत्पर होते हैं, तो अन्य वस्तु की सिद्धि का कौन-सा उपाय है? धीर पुरुष विनय से सर्व सिद्धि कर सकते हैं। तथा श्रुतज्ञान में कुशल, हेतु, कारण और विधि का जानकार मनुष्य भी यदि अविनीत हो तो उसकी शास्त्रार्थ के जानकार ज्ञानियों ने प्रशंसा नहीं की, और सम्यक्त्व, ज्ञान तथा चारित्र आदि गुणों की प्राप्ति में हेतुभूत विनय करने में तत्पर पुरुष यदि बहुश्रुत न हो तो भी उसे बहुश्रुत के पद पर स्थापन करते हैं। जिसमें विनय है वह ज्ञानी है, जो ज्ञानी है उसकी क्रियायें सम्यग् हैं और जिसकी क्रियायें सम्यग् हैं वही आराधना के योग्य है। इसलिए कल्याण की परम्परा को प्राप्त करने में एक समर्थ विनय में बुद्धिमान को एक समय मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। इस तरह संसाररूपी महासमुद्र को तैरने में जहाज समान और परिकर्म विधि आदि चार प्रकार वाली संवेग रंगशाला में आराधना का परिकर्म विधि द्वार पन्द्रह अन्तर भेद द्वार वाला है, उस प्रथम मुख्य द्वार का विनय नामक चौथा अन्तर द्वार संक्षेप से कहा । । १६९१ ।। अति विनय-विनम्र पुरुष को भी समाधि के अभाव में स्वर्ग-अपवर्ग को देने वाली आराधना सम्यग् नहीं होती, इसलिए इसके बाद सिद्धिपुरी का श्रेष्ठ द्वार और मनवांछित सर्व कार्य की सिद्धि का द्वार-समाधिद्वार कहते हैं : : समाधि नामक पाँचवां द्वार और उसकी महिमा : समाधि दो प्रकार की है, द्रव्य समाधि और भाव समाधि। उसमें जो द्रव्य स्वभाव से श्रेष्ठ हो, उसके उपयोग से द्रव्य समाधि होती है, अथवा तो अत्यन्त दुर्लभ स्वभाव से ही सुंदर और इष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का यथाक्रम सुनकर, देखकर, खाकर, सूंघकर और स्पर्श करके प्राणी जो प्रसन्नता को प्राप्त करता है वह द्रव्य समाधि है। यहाँ पर इस द्रव्य समाधि का अधिकार - प्रयोजन नहीं है अथवा तो कोई द्रव्य समाधि को भी कभी निश्चय से भाव समाधि में निमित्त रूप मानते हैं। वे कहते हैं- मन की इच्छानुसार भोजन करके मनोज्ञ आसन पर सोये, मनोज्ञ घर में रहकर मुनि मनोज्ञ ध्यान को करता है। भाव समाधि तो एकान्त से मनो विजय से होती है। मन का विजय राग द्वेष का सम्यग् त्याग करने से होता है। और उसका त्याग अर्थात् विविध शुभाशुभ शब्दादि विषय की प्राप्ति में राग द्वेष का संवर करना । । १७०० । । इसलिए चंचल घोड़े समान निरंकुश गति वाले और उन्मार्ग में लगे मन को विवेक रूपी लगाम से दृढ़ता पूर्वक वश में करना चाहिए। सुख के अर्थी सत्पुरुषों को समाधि प्राप्त करने में नित्यमेव सम्यक् प्रयत्न करना और धर्म के रागी को विशेष प्रयत्न करना चाहिए। उसमें भी अन्तिम आराधना के लिए उद्यमी मन वाले को तो सर्व प्रकार से विशेष प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि उसके बिना सुखपूर्वक धर्म आराधना नहीं होती है। असमाहीओ दुक्खं दुहिणो पुण अट्टमेव न उ धम्मो धम्मविहीणस्स पुणो दूरे आराहणामग्गो । । १७०४ ।। इस प्रकार हो तो असमाधि से दुःख होता है, दुःखी को पुनः आर्त्तध्यान होता है, धर्मध्यान नहीं होता और धर्मध्यान बिना आराधना का मार्ग दूर है ।। १७०४ ।। एक समाधि बिना पुरुष को सभी प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली सामग्री मिली हो तो वह भी दावानल 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy