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परिकर्म द्वार-समाधि दार-वमि राजार्षि की कथा
श्री संवेगरंगशाला तुल्य दुःखदायी बनती है और समाधि वाले को स्वादिष्ट-निरस भोजन करने पर, अच्छे खराब वस्त्र धारण करने पर, महल या स्मशानादि में रहने पर, अच्छे-बुरे काल में और सम-विषय अवस्था की प्राप्ति में भी नियम से हमेशा परम सुख ही होता है। तथा समाधि-जन्य सुख, भोगने में भय बिना का, प्राप्त करने में क्लेश बिना का, लज्जा से रहित, परिणाम से भी सुंदर, स्वाधीन, अक्षय, सर्वश्रेष्ठ और पाप बिना का सुख है। उत्तम समाधि में स्थिर सत्पुरुष वे किसी के स्मरण की अपेक्षा न करें, अथवा दूसरे उनका स्मरण न करें (उपेक्षा करें) फिर भी केवल समाधिजन्य सुख की प्राप्ति से ही वे सम्पूर्ण सन्तुष्ट होते हैं। ममत्व बिना जो उत्तम संयम से श्रेष्ठ समाधि में लीन है, वे सर्व पाप स्थानों से मुक्त हैं। उनका मन, मित्र, स्वजन, धन आदि का विनाश होते देखता हैं फिर भी निश्चल पर्वत के समान थोड़ा भी चलायमान नहीं होता। इस विषय में सुसमाधि के निधान रूप भगवंत श्री नमि राजर्षि दृष्टान्तभूत है। वह इस प्रकार से :
नमि राजर्षि की कथा पर्वत, नगर, खान, श्रेष्ठ शहर और धनधान्य से समृद्धशाली गाँवों से रमणीय विदेह नाम के देश में मिथिला नगरी थी। उस देश का पालन न्याय, विनय, सत्य, शौर्य, सत्त्व आदि विशिष्ट गुणों से शोभित और जगत में यश फैलाने वाला नमि नामक राजा राज्य करता था। उस राजा के राज्य में खण्डन और करपीड़ण था परन्तु वह तरुणी स्त्रियों के ओष्टपुट को तथा स्तनों का ही था, अन्य किसी स्थान पर नहीं था। और गुण को रोक करके वृद्धि करने का व्याकरण में ही सुना जाता था, परन्तु प्रजा में कोई अन्याय से धन या सुख को प्राप्त नहीं करता था, और विरोध तथा उपेक्षा भी उत्तम कवियों के काव्य में अलंकार रूप में ही थी, प्रजा में विरोध, उपेक्षा नहीं थी, ऐसे विविध गुणों वाले प्रजाजन का स्वामी और अति महिमा से शत्रु का नाश करने वाला वह राजा इन्द्र के समान विषयों को भोगते हुए काल व्यतीत करता था। किसी समय उस राजा को वेदनीय कर्म के वश प्रलयकाल की अग्नि के समान महा भयंकर दाह ज्वर हुआ और उस रोग से वह महात्मा वज्र की अग्नि की ज्वालाओं में पड़ा हो, इस तरह शरीर से पीड़ित उछलते, लेटते और लम्बे श्वास छोड़ने लगा। उत्तम वैद्यों को बुलाया, उन्होंने औषध का प्रयोग किया, परन्तु संताप लेशमात्र भी शान्त नहीं हुआ। लोक में प्रसिद्ध हुए अन्य मन्त्र, तंत्रादि के जानकारों को भी बुलाया, वे भी उस रोग को शान्त करने में निष्फल होने से वापिस चले गयें, जलन से अत्यन्त पीड़ित उसे प्रतिक्षण केवल चन्दन रस से और जल से भिगा हुआ ठंडे कमल के नाल से थोड़ा आधारभूत आराम मिलने से पति के दुःख से दुःखी हुई रानियाँ उसके निमित्त एक साथ सतत चन्दन घिसने लगीं। उनके हिलते कोमल भुजाओं में परस्पर टकराते सुवर्ण कंकणों से उत्पन्न हुई रण झंकार की आवाज अन्य आवाज को दबाकर सर्वत्र फैल गयी। उसे सनकर दुःख होने से राजा ने कहा-अहो! यह अत्यन्त अशान्तकारी आवाज कहाँ से प्रकट होकर फैल गयी है। सेवकों ने कहा-हे देव! यह आवाज चन्दन को घिसती रानियों के सुवर्ण कंकणों में से उत्पन्न हुई है। फिर राजा के शब्द सुनकर रानियों ने भूजा रूपी लता पर एक-एक कंकण रखकर शेष सभी निकाल दिये, एक क्षण के बाद पुनः राजा ने पूछा-अरे! उस सुवर्ण के कंकणों की आवाज अब क्यों नहीं सुनायी देती? मनुष्यों ने कहा-स्वामिन्! केवल एक-एक कंकण होने से परस्पर टकाराने के अभाव में इस समय आवाज किस तरह आ सकती है? राजा को आनन्द हुआ। इस अकेले कंकण में कोई आवाज नहीं है। शान्त वातावरण है। निश्चय से अकेले जीव को भी किसी प्रकार का अनर्थ नहीं होता। जितने प्रमाण में पर वस्तु का संग है। उतने प्रमाण में अनर्थ का फैलाव होता है। अतः मैं भी संग को छोड़कर निसंग बनें।
इस तरह संवेग को प्राप्त करते राजा को तुरन्त पूर्व जन्म में आराधित चारित्र और श्रुत ज्ञान का
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