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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-समाधि द्वार-नमि राजार्षि की कथा अनुस्मरण-स्मृति रूप जाति-स्मरण ज्ञान प्रकट हुआ, साथ ही वह दाह ज्वर भी कर्म की अनुकूलता के कारण दूर हो गया, उसके बाद महाभाग राजा अपने स्थान पर पुत्र को स्थापनकर प्रत्येक बुद्ध का वेश धारणकर सर्व संग का त्यागकर भगवंत समान वह अकेले नगर बाहर जाकर उद्यान में काउस्सग्ग ध्यान में खड़ा रहा। इस तरह नमि राजर्षि काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहने से उसी समय सारी प्रजा सर्वस्व नाश हो जाने के समान, अत्यन्त स्नेह से बेचैन चित्त होने के समान, महारोग से दुःखी हुए के समान करुण विलाप करती व्यवहार : से सर्व दिशाओं को भर दे इस तरह कोलाहल करती आंसु जल से आँखें भीगी करती रो रही थी, फिर काउस्सग्ग से लम्बे भुजा रूप परिधि वाला मानो मेरु पर्वत हो, ऐसे निश्चल नमि राजर्षि को देखकर इन्द्र ने विचार किया कि - नमि मुनि ने साधुता स्वीकार की है उसकी समाधि वर्तमान में कैसी है? उसके पास जाकर प्रथम परीक्षा करूँ, ऐसा सोचकर ब्राह्मण का रूप धारण कर इन्द्र, लोगों का समूह अति विलाप करता है ऐसा भयंकर नगर आग से जलता हुआ बताकर नमि राजर्षि को कहा कि - हे मुनि पुंगव ! आज मिथिला में सर्वत्र लोग करुण विलाप कर रहे हैं उसके विविध शब्द क्यों सुनाई देते हैं? नमि राजर्षि ने कहा- जैसे महा छाया वाला और फल फूल से मनोहर वृक्ष वायु के वेग से टूट जाता है, शरणरहित दुःखी हुए पक्षी विलाप करते हैं वैसे ही नगरी का नाश होते अत्यन्त शोक से पीड़ित अति दुःख से लोग भी विलाप करते हैं। इन्द्र ने कहा- यह तेरी नगरी और क्रीड़ा के महल भी प्रबल अग्नि से कैसे जल रहे हैं? उसे देखो ! और भुजा रूपी नाल को ऊँची करके, अतीव प्रलाप करती 'हे नाथ! रक्षण करो।' ऐसी बोलती अति करुणामय अन्तःपुर की स्त्रियों को देखो। म मुनि ने कहा- पुत्र, मित्र, स्वजन, घर और स्त्रियों को छोड़ने वाला मैं मेरा जो कुछ भी हो और वह जले तो विचार करुं ! उसके अभाव में मिथिला जलती हो उसमें मेरा क्या जलता है ? इस तरह हे भद्र! नगरी को देखने से भी मेरा क्या प्रयोजन है? निश्चय मोक्ष की अभिलाषा वाले, सर्वसंग के त्यागी मुमुक्षु आत्माओं का यही निश्चय परम सुख है कि उनको कोई भी प्रिय और अप्रिय नहीं है । इस प्रकार नमि मुनि का प्रशममय कथन सुनकर इन्द्र ने नगर का जलना दिखाना बन्द कर फिर इस प्रकार कहने लगे- तूं नाथ है, रक्षणकारक है, और शरण देने वाला है, इसलिए शत्रु के भयवश पीड़ित ये लोग तेरे दृढ़ भुजदण्ड रूपी शरण में आये हैं इसलिए नगर के किले के दरवाजे को सांकल से बन्द करवाकर, शस्त्रों को तैयार करवाकर फिर तुझे दीक्षा लेना योग्य है। मुनि ने कहा- हाँ, श्रद्धा यही मेरी नगरी है, उस पर मैंने संवररूपी दुर्गम सांकल और धृतिरूपी ध्वजा से युक्त क्षमा रूपी ऊँचा किल्ला बनाया है और वहाँ कर्म शत्रु विनाशक तप रूपी बाणों से शोभित पराक्रम रूप धनुष्य भी तैयार किया है। इस तरह मैंने रक्षा की है, तो इस समय मेरी दीक्षा क्यों योग्य नहीं है? इन्द्र ने कहा - हे भगवंत ! विविध उत्तम महल बनाकर फिर तुम्हें दीक्षा अंगीकार करने योग्य है ।। १७५३ ।। नमि ने कहा- हे भद्र! मार्ग में घर कौन तैयार करे? पण्डितजन को तो जहाँ जीव की स्थिरता हो वहीं घर बनाना योग्य है। इन्द्र कहा- लोगों की कुशलता के लिए क्षुद्र चोर आदि शत्रुओं को मारकर तुम्हें दीक्षा लेना योग्य है। ऋषि ने कहा- ये बाह्य चोरादि का हनन करना वह मिथ्या है। मेरी आत्मा का अहित करने वाले उन कर्मों का निश्चय नाश करना योग्य है। 78 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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