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________________ परिवर्म द्वार-समाधि द्वार-बनि राजर्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला इन्द्र ने कहा-हे भगवंत! जो राजा नमते नहीं हैं उन सबको शीघ्र जीतकर फिर तुम्हें दीक्षा लेना उचित मुनि ने कहा-जो इस संसार में अति दुर्जय आत्मा है उसको जीतने से ही एक हजार योद्धाओं का परम विजेता होता है। अतः मुझे आत्मा (कर्म) के साथ युद्ध करना उपयुक्त है, मोक्षार्थी को निष्फल बाह्य युद्ध करने से क्या लाभ? जिसने क्रोध, लोभ, मद, माया और पाँचों इन्द्रियों को जीत लिया उसने जीतने योग्य सर्व जीत लिया है। जिसने इन क्रोधादि को जीत लिया उसकी कीर्ति सिद्ध क्षेत्र के समान शाश्वत तीनों लोक में फैलकर स्थिर हो जाती है। यह सुनकर भक्ति भरे हृदय से इन्द्र ने पुनः महायश वाले नमि राजर्षि से कहा-बहुत यज्ञों को करवाकर, ब्राह्मण आदि को भोजन देकर, और दीन-दुःखी आदि को दान देकर तुम्हें साधु जीवन को स्वीकार करना अच्छा है, अथवा गृहस्थाश्रम को छोड़कर आप संयम की क्यों इच्छा करते हैं? हे राजन्! तुम पोसह के अनुरागी बनकर यहीं गृहस्थ वेश में पौषध-धर्म में रहो। नमि ने कहा-लाखों दक्षिणाओं से युक्त सुंदर यज्ञ कराने से भी संयम अत्यधिक गुणकारक है और घर में रहकर महिने-महिने के उपवास के पारणे में कुशाग्र जितना खाये ऐसा तपस्वी भी सर्वसंग के त्यागी श्रमण की तुलना में लेशमात्र भी नहीं है। इन्द्र ने कहा-हे राजन्! सुवर्ण-मणि का समूह और वस्त्रों की वृद्धि करके दीक्षा लेना योग्य है। मुनि ने कहा-हे भद्र! सुवर्ण-मणि आदि के कैलाश जितने ऊँचे ढेर हमने असंख्यात किये परन्तु लोभी एक जीव की भी तृप्ति नहीं हो सकी क्योंकि-इच्छा आकाश के समान विशाल है, किसी से भी पूरी नहीं हुई है। जैसे-जैसे लाभ बढ़ता है, वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता है। इस तरह तीन जगत की ऋद्धि सिद्धि प्राप्त होने पर भी किसी प्रकार की शान्ति नहीं होती है। इन्द्र ने कहा-राजन्! होते हुए भी मनोहर भोगों का त्याग करके, अभाव वस्तु की इच्छा करते तुम संकल्प से पीड़ित होते हो। मुनि ने कहा-हे मुग्ध! शल्य अच्छा है, जहर पीना अच्छा है, अति विषधर सर्प श्रेष्ठ है, क्रोध केसरी सिंह अच्छा है और अग्नि अच्छी है परन्तु भोग अच्छा नहीं है, क्योंकि इच्छा करने मात्र से वह भोग मनुष्य को नरक में ले जाता है, और दुस्तर भव समुद्र में परिभ्रमण करवाता है। शल्य आदि का भोग हो जाये तो भी उससे एक ही भव की मृत्यु होती है, भोग की तो इच्छा मात्र से भी जीव लाख-लाख बार मरता है, इसलिए भोगवांछा का त्यागी हूँ परम अधोगति कारक क्रोध को, अधम गति का मार्ग देने वाले मान को, सद्गति की घातक माया को, और इस भव-परभव उभय भव में भय कारक लोभ का भी नाश करके केवल साधुता की साधना में उद्यम करूँगा। इस प्रकार परम समाधि वाला, अत्यन्त उपशमभाव वाले उस नमि राजर्षि की विविध अनेक युक्तियों से परीक्षा कर और सुवर्ण के समान एक शुद्ध स्वरूप वाला जानकर अति हर्ष उत्पन्न हुआ और इन्द्र उनकी स्तुति करने लगा कि-हे क्रोध को जीतने वाले! सर्व मान का नाश करने वाले! और विशाल फैलाव करने वाली प्रबन्ध माया के प्रपंच का नाश करने वाले हे मुनिवर्य! आप विजयी हैं, लोभरूपी योद्धा को हनन करने वाले, पुत्र परिवार आदि संग के त्यागी, इस जगत में आप ही एक परमपूज्य हैं। इस भव में तो आप एक उत्तम हैं ही, परभव में भी उत्तमोत्तम होंगे, अष्टकर्म की गाँठ को चिरने वाले आप निश्चय तीन जगत के तिलक समान उत्तम . 79 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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