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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार सिद्ध क्षेत्र को प्राप्त करेंगे। आपके संकीर्तन-भक्ति से शद्धि क्यों नहीं हो? आपके दर्शन से पाप उपशम क्यों नहीं होंगे? कि जिनमें प्रयास से साध्य और शिवसुख की प्राप्ति में सफल मन के निरोध रूप यह समाधि स्फूर्ति है। इस प्रकार मुनि की स्तुति कर और कमल, वज्र, चक्र आदि सुलक्षणों से अलंकृत मुनि के चरण कमल को भक्तिपूर्वक वंदन कर तुरन्त भैरे तथा जंगली भैंसे के समान काले आकाश को पारकर इन्द्र देव लोक में पहुँच गया ।।१७८१।। इस प्रकार इस लोक में पाप के संग से विरागी मन वाले धीर पुरुष श्रेष्ठ समाधि के लिए नमिराज के समान सर्वजन उद्यम करते हैं, क्योंकि-धर्म गुणरूपी पौरजनों के निवास का श्रेष्ठ समाधि नगर है, अर्थात् समाधि में धर्मगुरु रह सकते हैं और समाधि आराधना रूपी लता का विशाल कन्द है। सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, क्षमा आदि महान् गुण भी समाधि गर्भित हो तभी स्वसाध्य यथोक्त फल को सम्यग् रूप से देते हैं, एकान्त में बैठो, प्रयत्न से पद्मासन लगाओ, श्वास को रोको, तथा शरीर की बाह्य चेष्टा को भी रोको, दोनों होंठों को मिलाकर रखो, मन्द आँख की दृष्टि को नाक के अन्तिम स्थान पर लगाओ परन्तु यदि समाधि नहीं लगे तो योगी उस ध्यान कर सकता। अति उत्तम योग वाले योगी जो चराचर जगत को भी हाथ में रहे निर्मल स्फटिक के समान देखते हैं, वह भी निश्चय समाधि का फल है और जिनका चित्त समाधि वाला, स्ववश और दुर्ध्यान रहित होता हैं, वे साधु निरतिचार साधुता के भार को बिना श्रम से वहन कर रहे हैं। इस भवन तल में वे धन्य हैं जो कि समाधि के बल से रागद्वेष को चकनाचूर कर शरीर का परम आधारभूत आहार की भी इच्छा नहीं करते हैं। वस्तु स्वरूप के सम्यग् ज्ञाता हर्ष विषाद आदि से मुक्त समाधि वाले जीव अनेक जन्मों के बाँधे हुए कर्मों को भी शीघ्रमूल में से उखाड़कर फेंक देते हैं। इसलिए चित्त पर विजय करने रूप लक्षण वाली भाव समाधि के लिए प्रयत्न करना योग्य है। यह भाव समाधि ही यहाँ उपयोगी है, अब इस सम्बन्ध में अधिक क्या कहें? इस प्रकार शास्त्र में कही यक्तियों वाली और परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली आराधना रूप संवेगरंगशाला के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला परिकर्म नामक प्रथम द्वार में यह पाँचवां समाधि नामक अन्तर द्वार कहा है। इस तरह चित्त के विषय से प्रकट हुआ यह समाधि गुण भी यदि आराधक बार-बार मन को नहीं समझायेगा तो मन स्थिर नहीं होगा, क्योंकि यदि वाहन-नाव के समान चिंतारूपी समुद्र में पड़ा हुआ मन परिभ्रमण करता है, अज्ञानरूपी वायु से प्रेरित हुआ दुर्ध्यान रूपी तरंगों से टकराता है और मोहरूपी आवर्त (भँवर) में पड़ता है, ऐसे मन को बार-बार अनुशासन रूपी कर्णधार नाविक सम्यक् काबू में नहीं रखेगा तो वह समाधि रूपी श्रेष्ठ मार्ग को कैसे प्राप्त कर सकेगा? अर्थात् मोक्ष मार्ग प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसलिए दोष का नाश करने वाला और गुणों को प्रकाशमय करनेवाले मन पर अनुशासन को यहाँ कहते हैं। सुसमाधि वाला अनुशासन इस प्रकार करें :मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार : हे चित्त! विचित्र चित्रों के समान तूं भी अनेक रंगों को (विविध विचारों को) धारण करता है, परन्तु यह परायी पंचायत द्वारा तूं अपने आपको ठगता है। रुदन, गति, नाच, हँसना, खेलना आदि विकारों से जीवों को मदोन्मत्त (घनचक्कर) के समान देखकर हे हृदय! तूं स्वयं ऐसा आचरण कर कि जिससे तूं दूसरों की हँसी का पात्र न बनें! क्या मोह सर्प से डसे हुए द्वारा अति व्याकुल प्रवृत्ति वाले, सामने रहें अशान्त अथवा असत् 80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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