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________________ परिकर्म द्वार-विनय द्वार-विनय पर श्रेणिक राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला मिला है' ऐसा बोलकर उसे पकड़ा और उसने अपनी बात कही, चोर ने कहा-हे सुतनु! जाओ, परन्तु शीघ्र वापिस आना कि जिससे तेरी चोरी कर चला जाऊँ 'ऐसा ही करूँगी' ऐसा कहकर वह चली, फिर आधे मार्ग में चपल पुतली से आकुल उछलती आँखों की कटाक्ष वाला, रणकार करते महान दाँत वाला, अत्यन्त फाड़ा हुआ भयंकर मुखरूपी गुफा वाला 'आओ-आओ, बहुत समय से भूखा हूँ आज तूं मुझे मिली है' ऐसा बोलते अत्यन्त भयंकर शरीर वाला अति दुःप्रेक्ष्य एक राक्षस आया और उसने हाथ से उसे पकड़ा, उसने सत्य बात कही, उससे उसे छोड़ दिया। फिर बाग में जाकर सुखपूर्वक सोये माली को जगाया और कहा-हे सज्जन! वह मैं यहाँ आयी हूँ। माली ने कहा-ऐसी रात्री में आभूषण सहित तूं किस तरह आयी? उसने जैसा बना था वैसा सारा वृत्तांत कह दिया। इससे अहो! सत्य प्रतिज्ञा वाली यह महासती है ऐसा विचार करते माली ने उसके पैरों में नमस्कार किया और उसे वहाँ से विदा किया। वह फिर राक्षस के पास आयी, उसने माली का वृत्तान्त कहा, इससे 'अहो! यह महाप्रभावशाली है कि जिसको उस माली ने छोड़ दी है' ऐसा सोचकर राक्षस ने भी पैरों में नमन कर उसे छोड़ दिया। फिर चोर के पास गयी और पूर्व वृत्तान्त सुनाया महान महिमा देखकर सन्मान वाले बने चोर ने भी वंदनकर अलंकार के साथ ही उसे घर भेज दिया। फिर आभूषणों सहित अक्षत शरीर वाली और अखण्ड शील वाली वह अपने पति के पास गयी और जैसा बना था वैसा सारा वृत्तान्त कहा। फिर प्रसन्न चित्त वाले उसके साथ समस्त रात रही। प्रभात का समय हुआ, उस समय मंत्री पुत्र विचार करने लगा कि-इच्छानुसार चलनेवाली, अच्छी रूपवाली समान सुख दुःख वाली और गुप्त बात को बाहर नहीं कहने वाली, गंभीर मित्र या स्त्री के सोकर से जागते ही प्रातः दर्शन होते है उस पुरुष को धन्य है। इस प्रकार विचारकर उसने अपनी पत्नि को समग्र घर की स्वामिनी बना दिया, अथवा निष्कपट प्रेम से अर्पण हृदय वाले को कौन-सा सम्मान नहीं होता है? ।।१६६।। __इसके बाद अभयकुमार ने पूछा कि-भाइयों! मुझे कहो इस तरह स्त्री के त्याग करने में पति, चोर, राक्षस और माली इन चार में दुष्कर कौन है? इर्षालुओं ने कहा-स्वामिन्! पति ने अति दुष्कर कार्य किया है कि जिसने रात्री में अपनी प्रिया को पर पुरुष के पास भेजी। क्षुधा वाले पुरुषों ने कहा-राक्षस ने ही अति दुष्कर कार्य किया है कि जिसने बहुत काल से भूखे होते हुए भी भक्ष्य करने योग्य का भक्षण नहीं किया। फिर परदारिक बोले--हे देव! एक माली ने दुष्कर कार्य किया है रात्री में स्वयं आयी थी फिर भी छोड़ दिया। चंडाल ने कहाकोई कुछ भी कहे परन्तु चोर ने दुष्कर कार्य किया है, क्योंकि उसने उस समय एकान्त स्थान से भी सोने के आभूषणों से युक्त उसको छोड़ दिया। ऐसा कहने से अभय कुमार ने 'यह चोर है' ऐसा निर्णय करके चंडाल को पकड़वाकर पूछा-बाग में से आम की किस प्रकार से चोरी की है? उसने कहा-हे नाथ! मैंने श्रेष्ठ विद्या बल से चोरी की है, फिर यह सारा वृत्तान्त श्रेणिक राजा को कहा। राजा ने भी कहा–यदि किसी तरह वह चंडाल अपनी विद्या मुझे दे तो छोड़ दूंगा, अन्यथा इसको खत्म करना है। चंडाल ने विद्या देना स्वीकार किया। फिर सिंहासन पर बैठे राजा विद्या का अभ्यास करने लगा। बार-बार प्रयत्न से विद्या को रटने लगे फिर भी जब विद्या राजा को प्राप्त नहीं हुई तब क्रोधित बनें राजा ने चंडाल को उलाहना देते हुए कहा-अरे! तूं सम्यग् रूप से अभ्यास नहीं करवाता है। उस समय अभयकुमार ने कहा-हे देव! इसमें इसका कोई भी दोष नहीं है, विनय से प्राप्त की हुई विद्या स्थिर होती है और फलदायक होती है। अतः इस चंडाल को सिंहासन पर बैठाकर आप जमीन पर रहकर विनयपूर्वक अभ्यास करें कि जिससे अभी ही विद्या की प्राप्ति हो जाये! राजा ने उसी प्रकार किया और विद्या उसी समय प्राप्त हो गयी, फिर अत्यन्त स्नेही समान उस चंडाल का सत्कारकर छोड़ दिया ।।१६८२।। इस प्रकार यदि इस लोक के तुच्छ कार्यों की साधना करने वाली विद्या भी हलकी जाति के गुरु का भी ___75 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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