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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्मद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा सन्मुख केसर के तिलक समान अरुणोदय हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे वहाँ से निकलकर वापिस वह अरण्य में गया और पुष्ट शरीर वाली गोह को लेकर पुनः दूसरे दिन रात को वह नगर में आया, राजभवन में चढ़ने के लिए गोह के पूछड़े को रस्सी से मजबूत बाँधकर और साथ में अपने को बाँधकर उसने गोह को जोर से ऊँचे फेंका और मजबूत पैर टेककर महल की दिवाल को लांघकर महल पर चढ़ा, फिर प्रसन्न मन वाला वह पल्लीपति गोह को छोड़कर धीरे से महल में जाने लगा, वहाँ उसी समय राजा के प्रति क्रोधित हुई, अपने मणिमय अलंकारों की कान्ति के समूह से अन्धकार को दूर करती शय्या में सोई हुई राजा की पट्टरानी वंकचूल को देखकर इस प्रकार से बोलने लगी-हे भद्र! तूं कौन है? उसने कहा-जगत में प्रसिद्ध मैं वंकचूल नामक चोर हूँ और मणि-सुवर्ण आदि चोरी करने के लिए मैं आया हूँ। ऐसा कहने से रानी बोली-तूं सुवर्ण आदि का चोर नहीं है, क्योंकि-हे निर्दय! तूं वर्तमान में मेरे हृदय की चोरी करना चाहता है ।।१०३५।। उसने कहा-हे सुतनु! आप ऐसा नहीं बोलो, क्योंकि चिरजीवन की इच्छा वाले कौन शेषनाग की मणि को लेने की अभिलाषा करें? उसके बाद उसकी कामदेव समान शरीर की सुन्दरता से मोहित चित्त वाली स्त्री स्वभाव में ही अत्यन्त तुच्छ बुद्धि वाली कुल के कलंक को देखने में परांगमुख और काम से पीड़ित रानी ने कहा-हे भद्रक! 'यह राजमहल है' ऐसे स्थान के भय को दूर फेंककर अभी ही मेरा स्वीकार कर। ऐसा करने से ही शेष सभी तुम्हें इच्छित धन की प्राप्ति जल्दी हो जायगी। अत्यन्त निर्मल उछलती रत्न की कान्तिवाले अलंकारों की श्रेणी को तं क्या नहीं देखता है? हे सभग! इसका तं स्वामी होगा। ऐसा उसका वचन सुनकर वंकचूल ने पूछा-हे सुतनु! तूं कौन है? क्यों यहाँ रहती है? अथवा तेरा प्राणनाथ कौन है? उसने कहा-हे भद्रक! महाराजा की में पट्टरानी हूँ, राजा के प्रति क्रोध करके यहाँ पर इस तरह रहती हूँ। पूर्व के अभिग्रह को स्मरण करके उसने कहा-यदि आप राजा की रानी हो, तो मेरी माता के तुल्य हो, इसलिए हे महानुभाव! पुनः ऐसा नहीं बोलना, 'जिससे कुल मलिन हो, ऐसा कार्य ऊँच कुल वाले को नहीं करना चाहिए।' क्रोध वाली उसने तिरस्कारपूर्वक वंकचल से कहा-अरे! महामढ! कायर के समान तं ऐसा अनुचित क्यों बोल रहा है? जिसको तूंने स्वप्न में भी नहीं देखी वह अभी राजपत्नी मिली है। हे मूढ़! उसका भोग तूं क्यों नहीं करता? उसने उत्तर दिया-हे माता! अब आग्रह को छोड दो. मन से यह चिन्तन करना भी योग्य नहीं है. उग्र जहर खाना अच्छा है परन्तु ऐसा अकार्य करना अच्छा नहीं है। प्रतिकूल जवाब के कारण रानी का क्रोध विशेष बढ़ गया, उसने प्रकट रूप में उससे कह दिया कि-हे हताश! मेरे वश में हो जा, तो स्वर्ग के सुख भोगेगा नहीं तो नग्न साधु के समान (इज्जत रुपी वस्त्र से रहित) बेआबरु होकर समग्र नगर में विडम्बना प्राप्तकर मरण-शरण होगा। तब उसने रानी से कहा-पूर्व में 'मातामाता' कहकर अब तुझे ही पत्नी कहकर किस तरह सेवन करूँ? ।।१०५०।। उस समय चिर समय से रानी को समझाने को आया हुआ राजा दिवार के पीछे रहकर उन दोनों के सारे शब्द सुनकर विचार करने लगा कि-अहो! आश्चर्य की बात है कि सन्मान और दान देकर प्रसन्न करने पर भी स्त्री एक पुरुष में स्थिरता नहीं रखती है कि जिससे अच्छे कुल में जन्म होने पर अनुरागी मन वाले मुझे छोड़कर इस तरह इस अनजान मनुष्य को भोगने की इच्छा करती है। सुख का नाश करने वाली ऐसी स्त्रियों पर राग करना ही सर्वथा धिक्कार रूप है। अरे रे! ऐसी स्त्रियाँ अच्छे कुलीन पुरुषों को भी किस तरह संकट में डालती हैं? यद्यपि पाप करने पर भी यह चोर कोई सत्पुरुष है, कि जो सामभेद आदि युक्तियों द्वारा यह स्त्री प्रार्थना करती है, तो भी इस चोर ने मर्यादा नहीं छोड़ी। पृथ्वी आज भी रत्नों का आधार है, अभी भी कलिकाल नहीं आया, जिससे ऐसे श्रेष्ठ पुरुष रत्न दिखते हैं। जो 50 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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