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श्री संवेगरंगशाला
तप की सामान्य आराधना-संक्षिप और विशेष आराधना का स्वरूप का जो सम्यक् पालन करना तथा सामायिक, छेदोपस्थापनिका, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, तथा यथाख्यात ये पांच चारित्र यथाशक्ति सेवन करना तथा उत्तम चारित्र रत्न से परिपूर्ण पुरुषसिंह साधु महात्माओं के प्रति जो हमेशा भक्ति, विनय आदि करना वह सब चारित्र की आराधना है। तप की सामान्य आराधना :
मन को खेद न हो, शरीर को बाधा न हो, इन्द्रियाँ विकलता को प्राप्त न करें, रूधिर मांस आदि शरीर की धातुओं की पुष्टि और क्षीणता भी न हो, तथा अचानक वात, पित्त आदि धातु दूषित न बनें, आरम्भ किये हुए संयम गुणों की हानि न हो, परन्तु उत्तरोत्तर उन गुणों की वृद्धि हो उस तरह से उपवास आदि ६ प्रकार के बाह्य तप में तथा प्रायश्चित्त आदि ६ प्रकार के अभ्यंतर तप में प्रवृत्ति करना और 'इस लोक परलोक' के सर्व सुख की इच्छा को सर्वथा त्यागकर बल, वीर्य पुरुषार्थ को हमेशा छुपाये बिना विधिपूर्वक तप करना चाहिए इस तप का श्री जिनेश्वर भगवान ने आचरण किया है श्री जिनेश्वर देव ने उपदेश दिया है इसलिए तीर्थंकर पद प्राप्त कराने वाला है अतः संसार का नाशक है, निर्जरा रूप फल देने वाला है, शिव सुख का निमित्त रूप है, मन से सोचे हुए अर्थ को प्राप्त कराने वाला है, दुष्कर कार्य होने रूप चमत्कार-आश्चर्य कराने वाला है, सर्व दोषों का निग्रह करने वाला है, इन्द्रियों का दमन करने वाला है, देवों को भी वश करने वाला है, सर्व विघ्नों का हरने वाला है, आरोग्य कारक है, और उत्तम मंगल के लिए यह तप योग्य है। ऐसा समझकर इन हेतुओं से अनेक प्रकार से करने योग्य होने से और परम पवित्र होने से, उसे करने का उद्यम करना और करने में परम संवेग-उत्साह-आदर प्राप्त करना और विविध तप गुण रूपी मणि के रोहणगिरि समान पुरुषसिंह महातपस्वी महात्माओं के प्रति विनय सन्मान आदि करना। यह सब तपाचार की आराधना है ।।६२२।। संक्षिप्त और विशेष आराधना का स्वरूप :
___ इस तरह सामान्यतया कही हुई इस आराधना के विशेष स्वरूप में भी दो भेद कहे हैं, संक्षेप और विस्तार से। उसमें विशेष आराधना भी संक्षेप में इस तरह होती है। साध अथवा श्रावक यदि वह अत्यन्त अस्वस्थ, महा रोगी आदि हो तो विस्तार सहित आराधना के लिए उसे अनुचित जानकर गुरु महाराज उसको अत्यन्त तीव्र रोग के आधीन देखकर भी उसने अगर चित्त में सन्ताप को प्राप्त न किया हो और आराधना की इच्छा वाला हो ऐसे गृहस्थ और साधु के पास उसके द्वारा अर्जित पापों की आलोचना करवाकर पाप रूपी शल्य का उद्धार करवाते हैं। और ऐसे गुरु महाराज का योग न मिले तो स्वयंमेव साहस का आलंबन लेकर श्रावक या साधु अपनी भूमिका के अनुसार चैत्यवंदन आदि यथायोग्यकर, ललाट पर दोनों हाथ से अंजलि जोड़कर हृदयरूपी उत्संग में श्री अरिहंत भगवंत को तथा श्री सिद्धों को बिराजमानकर इस प्रकार बोले :
भावशत्रु को नाश करने वाले श्री अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो तथा परम अतिशयों से समृद्धशाली सर्व श्री सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार हो। मैं यहाँ रहकर आपको वंदन करता हूँ, वहाँ पर रहे अप्रतिहत केवलज्ञान के प्रकाश से वे मुझे वंदन करते देखें। फिर विनति करे कि-मैंने पूर्व में भी निश्चय रूप में सत् क्रिया से प्रसिद्ध संविग्न और सुकृत योगी श्री सद् गुरुदेव के आगे मेरे सर्व मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण किया था, तथा उनके समक्ष ही मैंने संसार रूपी पर्वत को भेदन करने में दृढ वज्र समान जीवाजीव आदि पदार्थों की रुचि स्वरूप सम्यक्त्व को स्वीकार किया था। अभी भी उनके समक्ष भव भ्रमण के कारण रूप सम्पूर्ण मिथ्यात्व को विशेष स्वरूप से त्रिविध-त्रिविध द्वारा त्याग किया है और पुनः उनके समक्ष सम्यक्त्व को भी स्वीकार करता हूँ और उसके पूर्व में भी मुझे भाव शत्रुओं के समूह को नाश करने में सद्भूतार्थ श्रेष्ठ अरिहंत नाम के श्री भगवंत मेरे
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