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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकमद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा किया तथा हाथी, घोड़े, रत्न आदि वैभव और सेवक वर्ग उसे सौंप दिया। वैभवशाली वंकचूल विचार करने लगा कि-समग्र गुणों के भण्डार वे आचार्यश्रीजी कैसे कल्याणकारी बने हैं अन्यथा मैं इस तरह कैसे जीता रहता? अथवा मेरी बहन कैसे जीती रहती? अथवा अभी ऐसी लक्ष्मी का भोक्ता मैं कैसे बनता? हा! मंद बुद्धि वाले और परांगमुख मुझ पर उपकार करने में एक रक्त वे महानुभाव गुरुदेव ने कैसा उपकार किया है? वे ही निश्चय से चिन्तामणि हैं, कल्पवृक्ष और कामधेनु भी वही हैं, मात्र निष्पुण्यक मैं लेशमात्र भी उन्हें नहीं जान सका। इस तरह उन आचार्यजी को कृतज्ञता से मित्र के समान, स्वजन के समान, माता-पिता के समान और देव के समान हमेशा स्मरण करते वह दिन पूर्ण करने लगा। किसी दिन उसने दमघोष नामक आचार्य को देखा, और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक हृदय से उनको वंदन किया। आचार्यश्री ने उसे योग्य जानकर श्री अरिहंत धर्म के परमार्थ को समझाया और अनुभव सिद्ध होने से अति हर्ष से उसने उस धर्म को स्वीकार किया। और समीप के गाँव में रहने वाला धर्म में परम कुशल जिनदास श्रावक के साथ उसकी मित्रता हो गयी, इससे उसके साथ हमेशा विविध नयों से और अनेक विभागों से गम्भीर आगम को सुनता था, स्वजन के सदृश धर्मियों का वात्सल्य करता था, श्री जिन मंदिर में सर्व क्रिया, पूजा, प्रक्षाल, अंग रचना आदि आदरपूर्वक करता था। पूर्व में ग्रहण किये अभिग्रह रूपी वैभव को सदैव चिंतन करते और प्रमाद रहित आगमानुसार जैन धर्म का परिपालन करते वह सज्जनों के प्रशंसा पात्र बना हुआ नीति से सामन्तपने की लक्ष्मी को भोगने वाला बना। किसी दिन राजा की आज्ञा से वह बहुत सेना के साथ 'कामरूप' राजा की सेना के साथ युद्ध करने चला। काल क्रम से शत्रु के देश की सीमा में पहुँचा, उसी समय शत्रु भी वहाँ आ पहुँचा ।।१०९७ ।। वहाँ सुंदर चामर ढुल रहे थे। छत्रों का आडम्बर चमक रहा था। रथों का समूह चलने से उसकी आवाज गूंज रही थीं। योद्धाएँ उल्लासपूर्वक उछल रहे थे। मदोन्मत्त हाथी परस्पर सामने नजदीक में आ रहे थे। जो युद्ध प्रेमी सुभटों की प्रसन्नता का कारण था। घोड़ों का समूह हर्षारव कर रहा था। कई भाट बिरूदावली बोल रहे थे। युद्ध के सुन्दर बाजे बज रहे थे। शूरवीरों की प्रेरणा से युद्ध में उत्तेजन किया जाता था, युद्ध की नोबत बज रही थी। परस्पर जोर से चिल्ला रहे थे ।।११०० ।। विचित्र ध्वजा आदि में चिह्नों की मोहर लग रही थी। परस्पर प्रहार करने की शर्ते लग रही थीं। सुभट बख्तर से बगल बाँध रहे थे। जोर-जोर से बड़े शंख बज रहे थे। तीक्ष्ण तलवार का प्रकाश उछल रहा था जो प्रचंड कोप का कारण था। इस तरह परस्पर दोनों सेना का वह महायुद्ध प्रारम्भ हुआ। इसमें कायर आदमी भागने लगे। घोड़े, हाथी, योद्धा आदि मारे गये, और प्रहार के समूह से जर्जरित बने देह रूप पिंजर धरती ऊपर गिरने लगे, इस प्रकार निश्चय जो महायुद्ध हुआ उसमें शत्रु की जो सेना यद्ध में आयी थी वह सारी एक क्षण में ही भाग गयी। यद्ध करने में प्रबल महाभट जो कामरूप नामक राजा था उसे भी क्षण भर में जीतकर तुरन्त प्राणमुक्त कर दिया। शत्रुओं के कठोर प्रहार से घायल हुए शरीर वाला वंकचूल भी शत्रु को जीतकर युद्ध भूमि में से जल्दी निकला और प्रहारों से पीड़ित उज्जैन नगर में पहुँचा। उसके आगमन से राजा भी बहुत प्रसन्न हुआ। वैद्य का समूह एकत्रित होकर उसके प्रहारों का उपचार किया परन्तु लेशमात्र भी आरोग्यता प्राप्त न हुई, जख्म पुनः खुले होने लगे, उस कारण से वंकचूल ने अपने जीने की आशा छोड़ दी, इससे पुनः शोक से गद्-गद् स्वर से राजा ने वैद्यों से कहा-अहो! मेरा सेनापति यदि किसी भी दिव्य औषध से जल्दी निरोगी हो उस औषध को तुम बार-बार दो, उसके बाद वैद्यों में निपुण बुद्धि से शास्त्रों का विचार कर परस्पर निर्णय करके कौए के मांस की औषधी उसके घाव के लिए लाभदायक बतलायी, फिर भी जिन धर्म के प्रति निरूपम अनुराग से 'भले प्राण जाये परन्तु नियम नहीं जाये' इस निश्चय को याद करते उसने कौए के मांस का 52 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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