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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-श्रुतमद द्वार-स्थूलभद्र की कथा श्रीजिनचरण की पूजा वंदन शास्त्रार्थ का चिंतन आदि धर्म को करते उनके दिन अच्छी तरह से व्यतीत होते थे। वहीं रहने वाला कवि वररुचि ब्राह्मण प्रतिदिन एक सौ आठ काव्यों से राजा की स्तुति करता था उसकी काव्य शक्ति से प्रसन्न होकर राजा उसे दान देने की इच्छा करता था. परंतु शकडाल मंत्री उसकी प्रशंसा नहीं करने से नहीं देता था। इससे वररुचि पुष्प आदि भेंट देकर शकडाल की पत्नी की सेवा करने लगा। तब उसने उससे कहा कि-मेरा कोई कार्य हो तो कहो! उसने कहा कि आप के पतिदेव को इस तरह समझाओ कि जिससे राजा के सामने मेरे काव्यों की प्रशंसा करें। उसने वह स्वीकार किया और मंत्री को कहा कि-वररुचि की प्रशंसा क्यों नहीं करते? मंत्री ने कहा-मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा कैसे करूँ? बार-बार पत्नी के कहने पर उसका वचन मंत्री ने स्वीकार किया और राजा के सामने 'काव्य सुंदर है' इस तरह उसकी प्रशंसा की ।।६८००।। इससे राजा ने उसे एक सौ आठ सोना मोहर दी और प्रतिदिन उसकी उतनी आजीविका प्रारम्भ हो गयी। इस तरह धन का क्षय होते देखकर मंत्री ने कहा कि-देव! इसे आप दान क्यों देते हो? राजा ने कहा कि तूंने इसकी प्रशंसा की थी इसलिए देता हैं। मंत्री ने कहा-मैंने तो 'लोगों के काव्यों को वह अखंड बोल सकता है ऐसा मानकर प्रशंसा की थी इससे राजा ने पूछा कि-ऐसा किस तरह? मंत्री ने कहा-क्योंकि मेरी पुत्रियाँ भी इस तरह बोल सकती है। फिर योग्य समय पर वररुचि स्तुति करने आया, तब मंत्री ने अपनी पुत्री को परदे में रखा उसको प्रथम बार बोलते सुनकर सेना पुत्री ने याद कर लिया इससे राजा के सामने अखंड बोल दिया, इससे दूसरी बार सुनकर वेणापुत्री को याद हो गया और उसको बोलते तीसरी बार सुनकर रेणापुत्री को याद हो गया और वह भी लम्बे काल पूर्व में याद किया हो और स्वयं मेव रचना की हो वैसे राजा के सामने बोली इससे क्रोधित हुए राजा ने वररुचि का राज्य सभा में आना बंध करवा दिया।
इसके बाद वररुचि गंगा में यंत्र के प्रयोग से रात्री के समय उसमें पोटली रख आता था और प्रभात समय में गंगा की स्तुति करके, पैर से यंत्र को दबाने से उसमें से सोना मोहर की पोटली उछलते हुए को ग्रहण करता था और लोगों के आगे कहता था कि-स्तुति से प्रसन्न हुई गंगा मैया मुझे यह देती है। इस तरह बात फैलते राजा ने सनी और उसे मंत्री को कहा। मंत्री ने कहा कि-'हे देव! यदि मेरे समक्ष गंगा दे तो गंगा ने दिया है ऐसा मानूँगा। अतः प्रभात में गंगा किनारे जायेंगे।' राजा ने स्वीकार किया। फिर मंत्री ने सायंकाल में अपने विश्वासु आदमी को आदेश दिया कि-हे भद्र! गंगा किनारे जाकर छुपकर रहना और वररुचि जल में जो कुछ रखे वह मुझे लाकर देना। फिर उस पुरुष ने जाकर वहाँ से सोना मोहर की गठरी लाकर दी। प्रभात में नंदराजा और मंत्री वहाँ गये और पानी में रहकर उसे गंगा की स्तुति करते देखा, स्तुति करने के बाद उसने उस यंत्र को हाथ पैर से चिरकाल तक दबाया, फिर भी जब गंगा ने कुछ भी नहीं दिया, तब वररुचि अत्यंत दुःखी होने लगा। उस समय मंत्री शकडाल ने सोना मोहर की गठरी राजा को प्रकट कर दिखाई और राजा ने उसकी हंसी की, इससे वररुचि मंत्री के ऊपर क्रोधित हुआ, और उसके छिद्र देखने लगा।
एक दिन श्रीयक के विवाह करने की इच्छा वाला शकडाल राजा को भेंट करने योग्य विविध शस्त्रों को गप्त रूप में तैयार करवा रहा था। यह बात उपचरित रूप से केवल बाह्य वत्ति से सेवा करने वाली मंत्री की दासी ने वररुचि को कही। इस छिद्र का निमित्त मिलते ही, उसने छोटे-छोटे बच्चों को लड्डू देकर तीन मार्ग, चार मार्ग, मुख्य राज मार्ग पर इस तरह बोलने के लिए सिखाया कि-'शकडाल जो करेगा, उसे लोग नहीं जानते हैं नंद राजा को मरवाकर श्रीयक को राज्य ऊपर स्थापन करेगा।' और बालकों के मुख से ऐसे बोलते राजा ने सुना और गुप्त पुरुष द्वारा मंत्री के घर की तलाश करवायी, वहाँ गुप्त रूप में अनेक शस्त्रादि तैयार होते देखकर उन 286
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