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समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-श्रुतमद द्वार-स्थूलभद्र की कथा
श्री संवेगरंगशाला पुरुषों ने राजा को वह सारी स्थिति कही। इससे राजा को गुस्सा चढ़ गया। जब मंत्री सेवा के लिए आया और चरणों में नमस्कार किया तब राजा ने मुख विमुख किया। इससे 'राजा गुस्से हुआ है' ऐसा जानकर शकडाल ने घर जाकर श्रीयक को कहा कि हे पत्र! यदि मैं नहीं मरूं तो राजा सर्व को मार देगा. अतः हे वत्स! राजा के चरण में नमस्कार करते मुझे तूं मार देना, यह सुनते ही श्रीयक ने कान बंध कर लिये। तब शकडाल ने कहा कि पहले मैं तालपुट विष को खाकर स्वयं मरते हुए मुझे राजा के चरणों में नमन करते समय तूं निःशंक बनकर मार देना। फिर सर्व विनाश की आशंका युक्त मन वाला श्रीयक ने वैसा करना स्वीकार किया और उसी तरह राजा के चरणों में नमस्कार करते शकडाल का मस्तक काट दिया। हा! हा! 'अहो अकार्य किया' ऐसा बोलते नंद राजा खड़ा हो गया। इससे श्रीयक ने कहा कि राजन्! आप व्याकुल क्यों हो रहे हो? क्योंकि जो आपका विरोधी हो, वह यदि पिता हो तो भी मुझे उससे कोई काम नहीं है। फिर राजा ने कहा कि-अब तूं मंत्री पद को स्वीकार कर। तब उसने कहा कि-स्थूलभद्र नामक मेरा बड़ा भाई है उसे वेश्या के घर रहते बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं। राजा ने उसे बुलाया और कहा कि-मंत्री पद को स्वीकार करो। उसने कहा कि मैं इस विषय पर विचार करूँगा, तब राजा ने नजदीक में रहे अशोक वन में उसे भेजा, तब वह विचार करने लगा कि परकार्यों में व्याकुल मनुष्यों का भोग कैसा और सुख कैसा? और यदि सुख मिले तो भी अवश्य नरक में जाना पड़ता है इस कारण से इस सुख से क्या लाभ है? ऐसा विचारकर वैराग्य को प्राप्त किया संसार से विरक्त चित्त वाला उसने पंचमुष्टिक लोच कर स्वयं मुनि वेश को धारण कर राजा के पास जाकर कहा कि-हे राजन्! मैंने इस प्रकार विचार किया है।
फिर राजा के द्वारा उत्साहित किये वह महात्मा राजमंदिर से निकला और वेश्या के घर जायगा ऐसा मानकर राजा उसे देखता रहा। तब मृत कलेवर की दुर्गंध वाले मार्ग में भी देखे बिना जाते देखकर राजा ने जाना कि-निश्चय यह काम भोग से विरागी हुआ है। फिर श्रीयक को मंत्री पद पर स्थापन किया और स्थूलभद्र आर्य श्री संभूतिविजय के पास दीक्षित हुए और विविध प्रकार के अति उग्र तप को करने लगे। इस समय का वररुचि का नाश आदि शेष वर्णन अन्य सूत्र में से जान लेना। आर्य स्थूलभद्र पढ़ने के लिए आर्य भद्रबाहु स्वामी के पास गये और वह न्यून दस पूर्व को पढ़े, फिर विद्या गुरु श्री भद्रबाहु स्वामी के साथ विहार करते पाटलीपुत्र नगर पधारें। वहाँ दीक्षित हुई यक्षा आदि सात बहनें भाई को वंदन करने आयीं। आचार्य को वंदन करके उन्होंने पूछा कि-हमारे बड़े भाई महाराज कहाँ है? आचार्यश्री ने कहा कि-सूत्र का परावर्तन करने के लिए देव कुलिका में बैठे हैं। अतः वे वहाँ गयी और उनको आते देखकर अपनी ज्ञान लक्ष्मी को दिखाने के लिए स्थूलभद्र मुनि ने केसरी सिंह का रूप बनाया। उसे देखकर भयभीत होकर भागकर साध्वी ने आचार्यश्री से निवेदन किया किभगवंत! सिंह ने बड़े भाई का भक्षण किया है। श्रुत के उपयोग वाले आचार्यश्री ने कहा कि वह सिंह नहीं है, स्थूलभद्र है, अब जाओ। इससे वे गयीं और स्थूलभद्र मुनि को वंदन किया। और एक क्षण खड़ी रहकर विहार संयम आदि की बातें पूछकर स्व स्थान पर गयीं। फिर दूसरे दिन सूत्र का नया अध्ययन करने के लिए स्थूलभद्र मूनि आर्य भद्रबाहु स्वामी के पास आयें, तब उन्होंने 'तूं अयोग्य है' ऐसा कहकर पढ़ाने का निषेध किया। इससे उस स्थलभद्र ने सिंह रूप बनाने का अपना दोष जानकर सरिजी को कहा कि-हे भगवंत। पनः ऐसा नहीं करूँगा. मेरे इस अपराध को क्षमा करो। और महाकष्ट से अति विनती करने पर सूरिजी ने पढ़ाने का स्वीकार किया और कहा कि-केवल अंतिम चार पूर्वो का अध्ययन करवाऊँगा, उसे पढ़, परंतु दूसरे को तूंने पढ़ाना नहीं। इससे वह चार पूर्व उसके बाद विच्छेद हो गये। इसलिए अनर्थकारक श्रुतमद करना वह उत्तम मुनियों के योग्य नहीं है। अतः हे क्षपकमुनि! तूं उसे त्याग कर अनशन के कार्य में सम्यग् उद्यम कर। इस तरह पाँचवां श्रुतमद स्थान को
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