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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-श्री अरिहंत की भक्ति पर कनकरथ राजा की कथा जानकर शीघ्र चतुरंग सेना उपस्थित हुई। तब अति कुपित होकर कनकरथ राजा उस सेना सहित शीघ्र प्रस्थान करके शत्रु महेन्द्र सिंह राजा की सीमा में पहुँच गया। फिर उसे आया जानकर अत्यंत उत्साह को धारण करते महेन्द्र सिंह ने उसके साथ अति जोर से युद्ध करना प्रारंभ किया। फिर चक्र और बाणों के समूह को फेंकते, तेज से उग्र सुभट उछल रहे थे, हाथ में पहला हुआ वीरत्व सूचक वीरवलय में जुड़े हुए मणि की कांति से मानो कुपितयम नेत्रों से कटाक्ष फेंकता हो, इस तरह अवरोध करता अर्थात् शत्रु को रोकते मन और पवन समान वेग वाले घोड़े के समूह वाला महेन्द्र सिंह शत्रु कनक राजा की सेना के साथ युद्ध करने लगा। फिर जो रणभूमि में भांगे हुए दण्ड रहित छत्र समूह मानो भोजन करने के बाद फेंके हुए थाल न हो ऐसे दिखते थे और तलवार से शत्रुओं के गले काट देने वाले, युद्ध क्रिया से दुष्ट व्यंतरादि देवों को प्रसन्न करने वाले और अपने मालिक के कार्य में देह का भी त्याग करने वाले उत्तम बलवान योद्धा वहाँ कृतकृत्य होने से हर्षपूर्वक मानो नाच रहे थे। वहाँ रुधिर से भीगे मस्तकों से अलंकृत पृथ्वी मानो लाल कमलों से रची दिवार न हो? और जमीन दो विभाग के ऊपर गिरे हाथी मानों टूटे हुए अंजन पर्वत के शिखर न हों? इस तरह दिखते थें। इस प्रकार बहुत लोगों का नाश करने वाला युद्ध जब हुआ तब मिथिला के राजा ने दुर्जय अपने हाथी के ऊपर बैठकर रणभूमि में शत्रु के सन्मुख खड़ा रहा ।।७६०० ।। इस अवसर पर मंत्रियों ने कहा कि-हे देव! युद्ध से रुक जाओ। शत्रु के मनोरथ को सफल न करो। स्वशक्ति का विचार करो। यह उत्तर दिशा का राजा युद्ध में दृढ़ अभ्यासी है देव सहायता करते हैं, महान् पक्ष वाला और महा सात्त्विक है, इस तरह अभी ही गुप्तचरों ने हमसे कहा है, इसलिए एक क्षण मात्र भी इस स्थान पर रहना योग्य नहीं है। हे देव! अपनी शक्ति के अतिरिक्त कार्य का आरंभ करना ज्ञानियों ने मरण का मूल कारण कहा है, इसलिए सर्व प्रकार से भी अपने आत्मा का ही रक्षण करना चाहिए। 'हे देव! अभी भी अखंड सेना शक्तिवाले आप यदि युद्ध से रुक जाओगे, तो शत्रु नें आपके भाव को नहीं जानने से आप अपने नगर में निर्विघ्न पहुँच जाओगे। अन्यथा भाग्यवश हार जाने से और शत्रुओं द्वारा भागते हुए भी रोक देने से, सहायक बिना आपको भागना मुश्किल हो जायगा। इस प्रकार मंत्रियों के वचन रूपी गाढ़ प्रतिबंध से निर्भय भी कनकरथ राजा युद्ध से वापिस लौटा, बड़े पुरुष स्पष्ट समय के जानकार होते हैं। फिर शत्रु को हारे हुए और भागते देखकर महेन्द्र सिंह राजा भी करुणा से उस पर प्रहार किये बिना वापिस चला। मान भंग होने से और हृदय में दृढ़ शोक प्रकट होने से अपने आपको मरा हुआ मानते कनकरथ ने वापिस लौटते समय सुंसुमारपुर में इन्द्र महाराज के समूह से सेवित चरणकमल वाले श्री मुनिसुव्रत स्वामी को पधारें हुए देखा। तब राज चिह्नों को छोड़कर उपशम भाव वाला वेश धारण करके गाढ भक्ति से तीन बार प्रदक्षिणा देकर गणधर मुनिवर और केवल ज्ञानियों से घिरे हुए ए जगन्नाथ परमात्मा को वंदन करके राजा धर्म सुनने के लिए शुद्ध भूमि के ऊपर बैठा। क्षणभर प्रभु की वाणी को सुनकर और फिर युद्ध की परिस्थिति को याद कर विचार करने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार हो कि जिस पूर्व पुण्य के नाश होने से इस तरह शत्रु से हारा हुआ पराक्रम वाला होने पर भी सत्त्व नष्ट होने से मेरी अपकीर्ति बहुत फैल गयी है। इस तरह बार-बार चिंतन करते प्रभु को नमस्कार करके समवसरण से निकलते निस्तेज मुख वाले राजा को करुणा वाले विद्युत्प्रभ नामक इन्द्र के सामानिक देव ने कहा कि-हे भद्र! इस अति हर्ष के स्थान पर भी हृदय में तीक्ष्ण शल्य लगने के समान तूं इस तरह संताप क्यों करता है? और नेत्रों को हाथ से मसलकर नीलकमल समान शोभा रहित गीली हुई आँखों को क्यों धारण करता है? उसके बाद आदरपूर्वक नमस्कार करते मिथिला 1. अजहाबलमाऽऽरंभो य देव। मूलं वयंति मच्चुस्स। ता सव्वपयारेहिं वि, अप्प च्चिय रक्खियव्यो त्ति ।।७६०४।। 318 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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