SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला पति ने उत्तर दिया कि आप इस विषय में स्वयमेव यथास्थित ज्ञान से जानते हैं। तो यहाँ इस विषय में मैं क्या कहुँ? अनेक भूतकाल में हो गये और अत्यंत भविष्य काल हो गये उसके कार्यों को भी निश्चय जानते हैं उनको यह जानना वह तो क्या है? जब राजा ने ऐसा कहा तब अवधिज्ञान से तत्त्व को जानकर विद्युत्प्रभ देव ने इस तरह कहा कि-अहो! तूं शत्रु से पराभव होने से कठोर दुःख को हृदय में धारण करता है, परंतु श्री जिनेश्वर की भक्ति को दुःख मुक्ति का मूल कारण कहा है। हे राजन्! तेरी प्रभु के चरण कमल की वंदन क्रिया से मैं प्रसन्न हुआ हूँ। इसलिए अब मेरे प्रभाव से शीघ्र शत्रु के सामने जय को प्राप्त करेगा। __ऐसा देव का वचन सुनकर प्रसन्न मुख कमल वाला राजा सेना के साथ जल्दी शत्रु की ओर वापिस चला, फिर अनेक युद्धों में विजय करने वाला, अभिमान वाला महेन्द्र सिंह उसे आते सुनकर तैयार होकर सामने खड़ा हुआ और दोनों का युद्ध हुआ केवल विद्युत्प्रभ के प्रभाव से मिथिलापति ने प्रारंभ में ही महेन्द्र सिंह को हरा दिया और उसने पहले हाथी, घोड़े आदि राज्य के विविध अंग को ग्रहण किया था उसे वापिस लिया और उसे आज्ञा पालन करवा कर राज्य का सार संभाल के कार्य हेतु उसे रख दिया। फिर विजय करने योग्य शत्रु को जीतकर कनकरथ अपने नगर में आया और जगत में शरदचंद्र की किरण समान उज्ज्वल कीर्तिवाला प्रसिद्ध हुआ। एक दिन विशुद्ध लेश्या में वर्तन करते वह विचार करने लगा कि-अहो! श्रीजिनेश्वर भगवान की महिमा कैसी है कि जिसके वंदन मात्र से ही मैंने मनोरथ को भी अगोचर-कल्पना में भी नहीं आये, ऐसा अत्यंत वाञ्छित प्रयोजन को लीलामात्र से अनायास से प्राप्त किया है। इसलिए जगत में एक प्रभु इस जन्म और पर-जन्म में भावी कल्याण करने वाले सहज स्वभाव वाले परम परमात्मा और श्रेष्ठ कल्पवृक्ष समान उनकी सेवा करने योग्य है। ऐसा चिंतन करके राजा ने श्री मुनिसुव्रत प्रभु के चरण कमल में दीक्षा स्वीकार की। फिर उसे विधिपूर्वक पालन किया, इससे गुण गण का निधान समान गणधर नामगोत्र का बंध किया, अंत में आयुष्य पूर्णकर देदीप्यमान शरीर वाला महर्द्धिक देवता बना। वहाँ से आयुष्य पूर्णकर उत्तम कुल में मनुष्यत्व और उत्तम भोगों को प्राप्तकर श्री तीर्थंकर देव के पास दीक्षा लेकर गणधर बनकर संसार रूपी महावृक्ष को मूल से उखाड़कर केवलज्ञान के प्रकाश को प्राप्तकर जन्म, मरण से रहित परम निर्वाण पद को प्राप्त करेगा। इस तरह श्री अरिहंत परमात्मा आदि की भक्ति इस तरह उत्तरोत्तर कल्याणकारी जानकर हे क्षपक मुनि! तूं सम्यग् रूप से उस भक्ति का आचरण कर। श्री अरिहंतादि छह की भक्ति यह सातवाँ द्वार मैंने कहा है, अब आठवाँ पंच नमस्कार नामक अंतर द्वार कहते हैं।।७६३६ ।। पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार : हे महामुनि क्षपक! समाधि युक्त और कुविकल्प रहित तूंने प्रारंभ किया, विशुद्ध धर्म का अनुबंध (परंपरा) हो इस तरह अब बंधु समान श्री जिनेश्वर तथा सर्व सिद्ध; आचार का पालन करने वाले आचार्य, सूत्र का दान करने वाले उपाध्याय तथा शिवसाधक सर्व साधुओं को निश्चय सिद्धि के सुख साधक नमस्कार को करने में नित्य उद्यमी बन। क्योंकि यह नमस्कार संसार रूपी रण भूमि में गिरे हुए या फंसे हुए को शरणभूत, असंख्य दुःखों का क्षय का कारण रूप और मोक्षपद का हेतु है और कल्याण रूप कल्पवृक्ष का अवंध्य बीज है। संसार रूप हिमाचल के शिखर पर ठण्डी दूर करने वाला सूर्य है और पाप रूप सौ का नाश करने वाला गरुड़ है। दारिद्रता के कंद को मूल में से उखाड़ने वाली वराह की दाढ़ा है और प्रथम प्रकट सम्यक्त्व रत्न के लिए रोहणाचल की भूमि है। सद्गति के आयुष्य के बंध रूपी वृक्ष के पुष्प की विघ्न रहित उत्पत्ति है और विशुद्धउत्तम धर्म की सिद्धि की प्राप्ति का निर्मल चिह्न है। और यथा विधिपूर्वक सर्व प्रकार से आराधना कराने से इच्छित 319 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy