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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-मृषावाद द्वार-वसु राजा और नारद की कथा-अदत्तादान द्धार मत्स्य जैसे जल में लोहे के कांटे में मांस के टुकड़ों को, भ्रमर जैसे कमल को और जंगली हाथी जैसे हथणी के स्पर्श करने की इच्छा से मृत्यु को आमंत्रण देता है, वैसे वह पापी परधन को हरण कर मृत्यु को आमंत्रण देता है और उसी जन्म में भी हाथ का छेदन, कान छेदन, नेत्रों का नाश, करवत से काटा जाना अथवा मस्तक आदि अंगों का छेदन-भेदन होता है। पर के धन को. चोरी को आनंद मानता है और अपना धन जब दूसरा हरण करता है तब मानो शक्ति नामक शस्त्र से सहसा भेदन हुआ हो, इस तरह दुःखी होता है। लोग भी अन्य अपराध करने वाले अपराधी का पक्ष करते हैं, परंतु चोरी के व्यसनी का उसके स्वजन भी पक्ष नहीं करते हैं। अन्य अपराध करने वाले को सगे संबंधी घर में रहने के लिये स्थान देते हैं, परंतु परधन की चोरी करने वाले को माता भी घर में स्थान नहीं देती और किसी तरह भी जिसके घर में उसे आश्रय दिया जाता है वह उसे बिना कारण ही महा अपयश में. दःख में और महा संकट में फंसा देता है। मनुष्य महा कष्ट से लम्बे काल के बाद विविध आशाओं से कुछ धन एकत्रित करता है। ऐसा प्राण प्रिय समान उस धन की जो चोरी करता है उससे अधिक पापी और कौन है? संसारी जीवों को यह कष्ट से मिला हुआ धन सर्व प्रकार से प्राण तुल्य होता है, उसका उस धन की चोरी करने वाला पापी उसको जीते ही मारता है। वैभव चोरी होते ही दीन मुख वाले कितने भूख से मरते हैं, जब कृपण के समान कितने दूसरे के शोकाग्नि से जलते हैं। करुणा रहित उस समय जन्म लेने वाले पशु आदि का हरण करता है, इससे माता से अलग हुए दुःखी वे बच्चे मरते हैं। इस तरह अदत्तादान (चोरी) करने वाला प्राणीवध करता है और झठ भी बोलता है. इससे इस जन्म में भी अनेक प्रकार के संकट और मृत्यु प्राप्त करता है। तथा चोरी के पाप से जीव जन्मान्तर में दरिद्रता, भीरुता और पिता, पुत्र, स्त्री, स्वजन का वियोग इत्यादि दोषों को प्राप्त करता है। इसलिए हे भाई! सत्य कहता हूँ कि-निश्चय ही सर्व प्रकार से परधन हरण का त्याग करना चाहिए, परधन हरण के त्याग से दुर्गति का भी सर्वथा त्याग होता है। जैसे लोहे का गोला जल में डूबता है वैसे अदत्तादान से उपार्जन किये पाप समूह के भार से भारी बना जीव नरक में पड़ता है। अदत्तादान का ऐसा भयंकर विपाक वाला फल जानकर आत्महित में स्थिर चित्त वाले को इसका नियम लेना चाहिए। जो जीव परधन को लेने की बुद्धि का भी सर्वथा त्याग करता है वह ऊपर कहे उन सर्व दोषों को दाहिने पैर से अल्प प्रयास द्वारा खत्म करता है, इसके अतिरिक्त उत्तम देवलोक प्राप्त करता है, और वहाँ से उत्तम कुल में जन्म लेकर तथा शुद्ध धर्म को प्राप्त कर आत्महित में प्रवृत्ति करता है। मणि, सुवर्ण, रत्न आदि धन समूह से भरे हुए कुल में मनुष्य जन्म को प्राप्त करता है और चोरी के त्याग की प्रतिज्ञा से पुण्यानुबंधी पुण्य वाला धन्य पुरुष बनता है। उसका धन, गाँव, नगर, क्षेत्र, खड्डे अथवा अरण्य या घर में पड़ा हो, मार्ग में पड़ा हो, जमीन में गाड़ा हो अथवा किसी स्थान पर गुप्त रखा हो, या प्रकट रूप में रखा हो, अथवा ऐसे ही कहीं पर पड़ा हो, कहीं भूल गये हों अथवा व्याज में रखा हो, और यदि फेंक भी दिया हो फिर भी वह धन दिन अथवा रात में भी नष्ट नहीं होता है, परंतु अधिक होता (वृद्धि को पाता) है। अधिक क्या कहें? सचित्त, अचित्त या मिश्र कुछ भी वह धन धान्यादि दास, दासी, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि इधर-उधर किसी स्थान पर रहा हो उसे दूसरा कोई ग्रहण नहीं करता है। देश, नगर, गाँव का भयंकर नाश होता है, परंतु उसका नाश नहीं होता है। और बिना प्रयत्न से और इच्छा अनुसार मिले हुए धन का वह स्वामी और उसका भोक्ता होता है तथा उसके अनर्थों का क्षय होता है। वृद्धा के घर में भोजन के लिए आयी हुइ टोली वृद्धा के घर में धन को देखकर हरण करने वाले विलासियों के समान तीसरे पाप स्थानक में आसक्त जीव इस जन्म में बंधन आदि कष्टों को प्राप्त करता है और जो इसका नियम करता है वह अपने शुद्ध स्वभाव से ही उस समूह में रहते हुए श्रावक पुत्र के समान कभी भी दोष-दुःख के स्थान को प्राप्त नहीं करता है ।।५७८१।। इसका प्रबंध इस प्रकार है : 246 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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