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________________ अदनादान द्वार-श्रावक पुत्र और टोनी का दृष्टांत-मैथुन विरमण द्वार श्री संवेगरंगशाला श्रावक पुत्र और टोली का दृष्टांत वसंतपुर नगर में वसंतसेना नाम की एक वृद्धा रहती थी। उसने बड़े महोत्सव से नगर के सभी जनों को भोजन करवाया। उस नगर में एक विलासी दुष्ट मण्डली–टोली रहती थी। उन्होंने वृद्धा के घर धन देखकर रात्री के समय लूटने गये, केवल उस मण्डली में श्रावक पुत्र वसुदत्त भी था, उसने चोरी नहीं की। इससे 'चोरी मत करो, चोरी मत करो' ऐसा बोलते वृद्धा ने नमस्कार करने के बहाने से श्रावक पुत्र को छोड़कर शेष सब चोरों के चरणों को मोर के पिच्छ के (शरीर जन्य धातु) द्वारा निशान किया। घर के धन को उठाकर चोर निकल गये। फिर उसी समय प्रभात में वृद्धा ने वह वृत्तांत राजा से कहा। राजा ने नियुक्त किये पुरुषों को आदेश दिया। उन्होंने मोर के पिच्छ से अंकित पैर वाले पुरुषों की खोज करते आनंदपूर्वक स्वच्छन्दतया पान भोजनादि करती तथा विलास करती उस दुष्ट विलासी मण्डली को देखकर 'ये ही चोर हैं' ऐसा निश्चयकर वे चोरों को पकड़कर राजा के पास ले गये। वहाँ अनंकित पैर वाले एक श्रावक पुत्र को छोड़कर अन्य सब को छेदन, भेदन आदि अनेक पीड़ाओं द्वारा मरण के शरण कर दिया। इस तरह अदत्तादान की प्रवृत्ति वाले और उसके नियम वाले जीवों का अशुभ तथा शुभ फल को देखकर-हे वत्स! तूं इससे रुक जा। इस तरह अदत्त ग्रहण नाम का तीसरा पाप स्थानक कहा है। अब चौथा अनेक विषय वाला है फिर भी अल्पमात्र कहता हूँ। (४) मैथुन विरमण द्वार :- मैथुन लम्बे काल में कष्ट से प्राप्त धन का मूल से नाश करने वाला, दोषों की उत्पत्ति का निश्चित कारण और अपयश का घर है। गुण के प्रकर्ष रूपी कण समूह को चूरण करने वाली भयंकर ओखली है, सत्यरूपी पृथ्वी को खोदने वाले हल की अग्रधारा है और विवेक रूपी सूर्य की किरणों के विस्तार को ढांकने वाली ओस है। इसमें आसक्त जीव गुरुजनों से पराङ्मुख, आज्ञा का लोप करता है और भाई, बहन तथा पुत्रों से भी विरुद्ध रूप से चलता है। वह नहीं करने योग्य कार्य करता है, करने योग्य का त्याग करता है, विशिष्ट वार्तालाप करते लज्जित होता है और बाह्य प्रवृत्ति से विरक्त चित्तवाला सदा स्त्री के विषय में इस तरह से ध्यान करता है कि-अहो! अरुण समान लाल, नखों की किरणों से व्याप्त, रमणीय चरण युगल, प्रभात में सूर्य की किरणों से युक्त कमल के सदृश शोभायमान होते हैं। अनुक्रम से गोल मनोहर साथल मणि की कलश नली के समान रमणीय है और दोनों पिंडली कामदेव के हाथी की सैंड की समानता को धारण करती हैं। पाँच प्रकार के प्रकाशमय रत्नों का कंदोरे से यक्त नितम्ब प्रदेश भी स्फरायमान इन्द्र धनष्य से आकाश विभाग शोभता है वैसे शोभता है। मुष्टि ग्राह्य उदर भाग में मनोहर बलों की परंपरा शोभती है, स्तन रूपी पर्वतों के शिखर के ऊपर चढ़ने के लिए स्वर्ण की सोपान पंक्ति के समान शोभती है, कोमल और मांस से पुष्ट हथेलियों से शोभित दो भुजा रूपी लताएँ भी ताजे खिले हुए कमल वाले कमल के नाल की उपमा धारण करते हैं ।।५८०० ।। आनंद के बिंदु गिरते सुंदर विशाल चंद्र के बिंब समान स्त्री का मुख रूपी शतपत्र कमल है, वह कामी पुरुष रूपी चकोर के मन में उल्लास बढ़ाता है। भ्रमर के समूह रूप एवं काजल समान श्याम उसका केश समूह, चित्त में जलते कामाग्नि का धम समह समान शोभता है। इस तरह कामासक्त स्त्री के अंग के सर्व अवयवों के ध्यान में आसक्त रहता है। उससे शून्य चित्त बना हो, उस स्त्री के हाड़ के समूह से बना हो, नारी से अधिष्ठित बना हो अथवा सर्वात्म के संपूर्ण उसकी परिणति रूप तन्मय बना हो, इस तरह बोलता है कि-अहो! जगत में कमल पत्र तुल्य नेत्रों वाली युवतियों की हंस गति को जीतने वाली गति का विलास, अहो! मनोहर वाणी! और अर्ध नेत्रों से कटाक्ष फेंकने की चतुराई। अहो! कोई अति प्रशस्त है। अहो! उसका अल्प विकसित कैरव पुष्प समान, स्फुरायमान दांत का सामान्य दिखने वाला सुखद मधुर हास्य। अहो! सुवर्ण के गेंद के समान उछलते स्थूल स्तन 247 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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