SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि लाभ द्वार - मृषावाद द्वार-वसु राजा और नारद की कथा-अदत्तादान द्वार श्री संवेगरंगशाला विचार किया कि - वह आश्चर्यकारी रत्न राजा के ही योग्य है, इसलिए आपको कहने के लिए आया हूँ। यह सुनकर राजा ने उस स्फटिक की शिला को गुप्त रूप में मंगवाकर सिंहासन बनाने के लिए कलाकारों को सौंपा। उसका सिंहासन बनाकर सभा मंडप में स्थापन किया, उसके ऊपर बैठा हुआ राजा आकाश तल अंतरिक्ष में (हवा में लटकता) बैठा हो, इस तरह दिखता था। नगर लोग विस्मित होते थे और अन्य राजाओं में प्रसिद्धि हुई किवसु राजा सत्य के प्रभाव से अंतरिक्ष में बैठता है । और ऐसी प्रसिद्धि को सदा रखने के लिए उसने उन सब कलाकारों को खत्म कर दिया और लोगों को दूर रखकर विज्ञप्ति आदि बात करता था, परंतु किसी को भी नजदीक आने नहीं देता था । और वह पर्वत तथा नारद भी शिष्यों को अपने-अपने घर वेद का अध्ययन करवाते थे, इस तरह बहुत समय व्यतीत हुआ । किसी समय अनेक शिष्यों के साथ नारद पूर्व स्नेह से और अपने गुरु का पुत्र मानकर पर्वत के पास आया, पर्वत ने उसका विनय किया और दोनों बातें करने लगे। प्रसंगोपात अति मूढ़ पर्वत ने यज्ञ के अधिकार सम्बन्धी व्याख्यान किया 'अजेहिं जट्टव्वं' इस वेद पर से 'अज अर्थात् बकरे द्वारा' यज्ञ करना चाहिए। इस तरह अपने शिष्य को समझाया। इससे नारद ने कहा कि - यहाँ इस विषय में अज अर्थात् तीन वर्ष का पुराना अनाज जो फिर उत्पन्न न हो ऐसे जो व्रीही आदि हो उसके द्वारा ही यज्ञ करना ऐसा गुरुजी ने कहा है । यह वचन पर्वत ने नहीं माना, इससे बहुत विवाद हुआ और निर्णय हुआ कि जो वाद में हार जाय उसकी जीभ का छेदन करना, ऐसी दोनों ने प्रतिज्ञा की तथा साथ में पढ़ने वाला वसु राजा था। वह इस विषय में जो कहेगा वह प्रमाण रूप मानना । फिर नारद को सत्यवादी जानकर पर्वत की माता भयभीत हुई कि - निश्चय अब मेरे पुत्र की जीभ छेदन से मृत्यु होगी, इसलिए राजा के पास जाकर निवेदन करूँ। ऐसा सोचकर वह वसु राजा के महल में गयी । गुरु पत्नी को आते देखकर राजा ने खड़े होकर विनय किया, फिर उसने एकांत में नारद और पर्वत की सारी बातें कहीं । वसु राजा ने कहा कि - हे माता ! आप कहो, इसमें मुझे क्या करना है? उसने कहा कि - मेरा पुत्र जीते ऐसा करो। उसके अति आग्रह के कारण वसु राजा ने भी स्वीकार किया और दूसरे दिन दोनों पक्ष उसके सामने आये, सत्य बात सुनाकर नारद ने कहा कि - हे राजन् ! तुम इस विषय में धर्म का तराजू हो, तूं सत्यवादियों में अग्रसर हो इसलिए कहो कि 'अजेहिं जट्टव्वं' इसकी गुरुजी ने किस तरह व्याख्या की है? तब अपने सत्यवादी की प्रसिद्धि को छोड़कर राजा ने कहा कि - हे भद्र! 'अजेहिं अर्थात् बकरे द्वारा जट्टव्वं अर्थात् यज्ञ की पूजा करनी' ऐसा कहा है । ऐसा बोलते ही अति गलत साक्षी देने वाला जानकर कुलदेवी कुपित हुई और स्फटिक सिंहासन से उसे नीचे गिराकर मार दिया और इसके बाद भी उस सिंहासन पर आठ राजा बैठे, उन सबको मार दिया। 'पर्वत भी अति असत्यवादी है' ऐसा मानकर लोगों ने धिक्कारा और वसु राजा मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। नगर लोगों में सत्यवादी के रूप में नारद का सत्कार हुआ, उसकी इस लोक में चंद्र समान उज्ज्वल कीर्ति हुई और परलोक में देवलोक की सुख संपत्ति की प्राप्ति हुई । इस तरह दूसरा मृषावाद नामक पाप स्थानक कहा, अब तीसरा अदत्तादान नामक पाप स्थानक कहते हैं ।। ५७५२ ।। (३) अदत्तादान द्वार : - • कीचड़ जैसे जल को, मैल जैसे दर्पण को और धुँआ जैसे दोवार के चित्रों को मलिन करता है वैसे परधन लेन का स्मरण भी चित्त रूपी रत्न को मलिन करता है। इसमें आसक्त जीव बिना विचारे धर्म का नाश करने वाला, सत्पुरुषों ने पालन की हुई कुल व्यवस्था का अनादर करने वाला, कीर्ति को कलंक नहीं देखने वाला, जीवन की परवाह न करके, मृग जैसे गीत के शब्द को, पतंग जैसे दीप की ज्योति को, 1. नारद का शिष्यों को पढाने का उल्लेख अन्य कथानकों में नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only 245 www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy