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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-मृपावाद द्वार-वसु राजा और नारद की कथा इस प्रकार सत्य वचन रूपी मंत्र से मंत्रित विष भी मारने में समर्थ नहीं हो सकता है और सत्य वचनी धीर पुरुषों द्वारा श्राप दी हुइ अग्नि भी जला नहीं सकती। उल्टे मार्ग में जाती पर्वत की नदी को भी निश्चय सत्य वचन से रोक सकते हैं और सत्य से श्रापित किये हुए सर्प भी किल के समान स्थिर हो जाते हैं। सत्य से स्तम्भित हुआ तेजस्वी शस्त्रों का समूह भी प्रभाव रहित बन जाता है और दिव्य प्रभाव पड़ने पर भी सत्य वचन सुनने मात्र से जल्दी मनुष्य शुद्ध होता है। सत्यवादी धीर पुरुष सत्य वचन से देवों को भी वश करते हैं और सत्य वक्ता से पराभव हुए डाकिनी, पिशाच और भूत-प्रेत भी छल कपट नहीं कर सकते हैं। सत्य से इस जन्म में अभियोगिक देव प्रायोग्य पुण्य समूह का बंधकर महर्द्धिक देव बनकर अन्य जन्म में उत्तम मनुष्यत्व को प्राप्त करता है और वहाँ आदेय नाम कर्म वाला, वह सर्वत्र मान्य वचन वाला, तेजस्वी, प्रकृति से सौम्य, देखते ही नेत्रों को सुखकारी और स्मरण करते मन की प्रसन्नता प्राप्त कराने वाला, तथा बोलते समय कान और मन को दूध समान, मधु समान और अमृत समान प्रिय और हितकारी बोलता है, इस तरह सत्य से पुरुष वाणी के गुण वाला बनता है। सत्य से मनुष्य जड़त्व, मूंगा, तुच्छ स्वर वाला, कौएँ के समान अप्रिय स्वर वाला, मुख में रोगी और दुर्गन्ध युक्त मुखवाला नहीं होता है। परंतु सत्य बोलने वाला मनुष्य सुखी, समाधि प्राप्त करने वाला, प्रमोद से आनंद करने वाला, प्रीति परायण, प्रशंसनीय, शुभ प्रवृत्ति वाला, परिवार को प्रिय बनता है। तथा प्रथम पाप स्थानक के प्रतिपक्ष से होने वाले जो गुण बतलाये हैं उस गुण से युक्त और इस गुण से युक्त बनता है। इस तरह इसके प्रभाव से जीव श्रेष्ठ कल्याण की परंपरा को प्राप्त करता है और पूज्य बनता है, अतः यह सत्य वाणी विजयी बनती है। सत्य में तप, सत्य में संयम और सत्य में ही सर्व गुण रहे हैं। अति दृढ़ संयमी पुरुष भी मृषावाद से तृण के समान कीमत रहित बनते हैं। इस तरह सत्य असत्य बोलने के गुण-दोष जानकर-हे सुंदर! असत्य वचन का त्याग कर सत्यवाणी का ही उच्चारण कर। दूसरे पाप स्थानक में वसु राजा के समान स्थान भ्रष्ट आदि अनेक दोष लगते हैं और उसके त्याग से जीव को नारद के समान गुण उत्पन्न होते हैं ।।५७२०।। वह इस प्रकार : वसु राजा और नारद की कथा इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में शक्तिमती नगर में अभिचंद्र नाम का राजा राज्य करता था और उसका वसु नाम का पुत्र था। उसे वेद का अभ्यास करने के लिए पिता ने आदरपूर्वक गुणवान् क्षीर कदंबक नामक ब्राह्मण उपाध्याय को सौंपा। उपाध्याय का पुत्र पर्वत और नारद के साथ राजपुत्र वसु वेद के रहस्यों का हमेशा अभ्यास करने लगा। एक समय आकाश मार्ग से अतीव ज्ञानी महामुनि जा रहे थे, इन तीनों को देखकर परस्पर कहा किजो ये वेद पढ़ रहे हैं इनमें दो नीच गति में जाने वाले और एक ऊर्ध्व गति में जाने वाला है। ऐसा कहकर वे वहाँ से आगे चले। यह सुनकर उपाध्याय क्षीर कदंबक ने विचार किया कि-ऐसा अभ्यास कराना निरर्थक है, इससे क्या लाभ है? इससे तो मुझे भी धिक्कार है, ऐसा संवेग प्राप्तकर उसने दीक्षित होकर मोक्ष पद प्राप्त किया। अभिचंद्र राजा ने अपने राज्य पर अभिषेक करके वसु को राजा बनाया। वह राज्य भोगते उसे एक दिन एक पुरुष ने आकर कहा कि-हे देव! आज मैं अटवी में गया वहाँ हिरण को मारने के लिए बाण फेंका था, परंतु वह बीच में ही टकरा कर गिर पड़ा। इससे आश्चर्यचकित होते हुए में वहाँ गया, वहाँ हाथ का स्पर्श करते मैंने एक निर्मल स्फटिक रत्न की शिला देखी जिस शिला के पीछे के भाग में हिरण स्पष्ट दिखता था। बाद में मैंने 1. अन्य कथानकों में परीक्षा करने का उल्लेख है। 244 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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