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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-रुपमद द्वार-दो भाइयों की कथा पूर्वभव को देखते कुछ प्रसन्न बनें गुरु महाराज ने कहा कि-अरे! कर्म का दुष्ट विलास भयंकर है। क्योंकिनिरुपम रूप वाला भी विरूप बनता है और वही विरूपी पुनः कामदेव के रूप की उपमा को प्राप्त करता है। बाद में विस्मित पूर्वक पर्षदा के लोगों ने नमस्कार कर कहा कि-हे भगवंत! इस विषय में तत्त्व के रहस्य को बतलाएँ, हमें जानने की बहुत इच्छा है ।।६६८४ ।। तब गुरुदेव ने कहा कि-आप सब सावधान होकर सुनो :
धनपति के ये दो पुत्र तामलिप्ती नगरी में धनरक्षित और धर्मदेव नाम के दो मित्र थे। उसमें प्रथम धनरक्षित रूपवान और दूसरा धर्मदेव अति विरूप था। दोनों परस्पर क्रीड़ा करते थे, परंतु धनरक्षित रूपमद से लोग समक्ष धर्मदेव की अनेक प्रकार की हँसी करता था। एक समय धनरक्षित ने धर्मदेव से कहा कि-हे भद्र! पत्नी के बिना सारा गृहवास का राग निष्फल है। इसलिए स्त्री के विवाह से विमुख तूं बेकार क्यों दिन गंवा रहा है? यदि इस तरह ही अविवाहित रहने की इच्छा है तो साधु बन जा। सरल स्वभाव से उसने कहा कि हे मित्र! यह सत्य है, परंतु संसार में स्त्री की प्राप्ति में दो हेतु होते हैं एक मनुष्य के मन को हरण करने वाला रूप अथवा अति विशाल लक्ष्मी हो, ये दोनों भी दुर्भाग्यवश मुझे नहीं मिली हैं। फिर भी अब ऐसी बुद्धि द्वारा स्त्री की प्राप्ति यदि संभव हो जाए तो वह तं ही बतला. तझे दोनों हाथ जोडकर नमस्कार करता हैं। उसके ऐसा कहने से धनरक्षित ने कहा कि-हे मित्र! तूं निश्चिंत रह, इस विषय में मैं संभाल लूंगा। धन, बुद्धि, पराक्रम, न्याय से अथवा अन्याय से अधिक क्या कहूँ? किसी तरह भी तेरे वांछित अर्थ को सिद्ध करूँगा। उसने कहा कि कुछ भी कर। निष्कपट प्रेमवाला तूं मेरा मित्र है, आज से मेरा दुःख तुझे देकर मैं सुखी हुआ हूँ। उसके बाद धनरक्षित ने उसके समान रूप वैभववाली कुबेर सेठ की पुत्री को दूती भेजकर कहलवाया कि-यदि तूं विकल्प छोड़कर, मैं जो कहूँ उसे स्वीकार करे तो तुझे मैं कामदेव समान रूपवाला पति दूंगा। उसने कहा कि-निःशंकता से आदेश दो, मैं स्वीकार करूँगी। फिर उसने कहलवाया कि-आज रात्री में कोई भी नहीं जाने, इस तरह तूं मुकुंद के मंदिर में आ जाना, जिससे उसके साथ में अच्छी तरह तेरा विवाह कर दूंगा। उसने वह स्वीकार किया। फिर सूर्य अस्त होते कोयल के कण्ठ समान काला अंधकार का समूह फैलते और प्रतिक्षण गली में मनुष्यों का संचार रहित होने पर विवाह के उचित सामग्री को उठाकर परम हर्षित मनवाला धर्मदेव के साथ वह वहाँ मुकुंद के मंदिर में गया।।६७०१।।
उस समय विवाह के उचित वेश धारण कर वह भी वहाँ आयी, फिर संक्षेप से उनकी विवाह विधि की, फिर हर्षित हुए धनरक्षित ने दीपक को सामने रखकर कहा कि-हे भद्रे! पति का नेत्र दर्शन कर! फिर लज्जा वश स्थिर दृष्टि वाली वह जब मुख को जरा ऊँचा करके दीपक के प्रकाश से देखने लगी तब होंठ के नीचे तक लगा हुआ बड़े दांत वाला, अत्यंत चपटी नाक वाला, हडपची के एक ओर उगे हुए बीभत्स कठोर रोम वाला, उल्लू के समान आँख वाला, मुख में घुसे हुए कृश गाल वाला, तिरछी स्थिर रही धूम रेखा समान भ्रमर वाला, मसि समान श्याम कांतिवाला उसका मुख दृष्टि से देखा। उसका मुख भी उसके उस गुण से युक्त था, केवल उससे रोम रहित का ही भेद था। दाढ़ी मूंछ या शरीर पर रोम नहीं थे। फिर शीघ्र गरदन घुमाकर अपना मुख उल्टा करके उसने कहा कि-हे धनरक्षित! निश्चय ही तूंने मुझे ठगा है। कामदेव समान कहकर पिशाच समान पति को प्राप्त करवाकर तंने मेरे आत्मा को यावच्चन्द्र अपयश से बदनाम किया है। धनरक्षित ने कहा कि मेरे प्रति क्रोध न कर, क्योंकि-विधाता ने ही योग्य के साथ योग्य-सी जोड़ी की है, इसमें मेरा क्या दोष है? फिर तीव्र क्रोध से दांत से होठ को काटती, स्वभाव से ही श्याम मुख को सविशेष काला करती और अस्पष्ट अक्षरों से मंद-मंद कुछ बोलती शीघ्र हाथ से कंकणों को उतारकर विवाह नहीं हुआ हो, इस तरह वह मुकुंद मंदिर में
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