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समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-रूपमद द्वार-दो भाइयों की कथा
'श्री संवेगरंगशाला परिव्राजकपने को वंदन नहीं करता हूँ, परंतु अंतिम जिनेश्वर होंगे, इस कारण से नमस्कार करता हूँ। इत्यादि स्तुति करके जैसे आया था वैसे भरत वापिस चला गया।
उसके बाद गाढ़ हर्ष प्रकट हुआ, विकसित नीलकमल के पत्र समान नेत्रवाला मरिचि रंगभूमि में रहे मल्ल के समान तीन बार त्रिदण्ड को पछाड़कर अपने विवेक को छोड़कर इस तरह बोलने लगा- 'देखो वासुदेवों में प्रथम मैं, विदेह की मूका नगरी में चक्रवर्ती भी मैं और तीर्थंकरों में अंतिम भी मैं हूँ तो अहो! मेरा पूण्य कितना उत्तम है' वासुदेवों में में प्रथम, मेरे पिता चक्रवर्ती के वंश में प्रथम, और आर्य-दादा तीर्थंकरों में प्रथम हैं, अहो! मेरा कुल कितना उत्तम है। इस तरह अपने कुल की सुंदरता की सम्यक् प्रशंसा रूपी कलुषित भाववश उसने नीच गोत्र कर्म का बंध किया, और उस निमित्त से वापिस वह महात्मा छह भवों तक ब्राह्मण कुल में और दूसरे नीच कुल में उत्पन्न हुआ तथा वासुदेव, चक्रवर्ती की लक्ष्मी को भोगकर अरिहंत आदि बीस स्थानकों की आराधना करके, अंतिम जन्म में अरिहंत होने पर भी अनेक पूर्वकाल में बांधे हुए नीच गोत्र कर्म के दोष से वह ब्राह्मण कुल में देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ रूप में उत्पन्न हुए, बयासी दिन बाद इन्द्र महाराज ने 'यह अनुचित है' ऐसा जानकर विचारकर हरिणैगमेषी देव को आदेश देकर उसे सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला के गर्भ में रखवाया। फिर उचित समय में उनका जन्म हुआ, तब देवों ने मेरु पर्वत ऊपर जन्माभिषेक किया, और तीर्थ (धर्म) की स्थापना करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया। इस तरह अपने कुल की प्रशंसा से बांधे हुए नीच कर्म के दोष से यदि श्री तीर्थंकर परमात्मा भी ऐसी अवस्था को प्राप्त करते हैं, तो संसार के जानकार पुरुष कुलमद की इच्छा भी कैसे करे? इसलिए हे क्षपकमुनि! तुझे अब से इस मद को किसी प्रकार से भी नहीं करना चाहिए। इस तरह दुसरा कुलमद का अंतर द्वार कहा। अब तीसरा रूप मद द्वार को भी मैं अल्पमात्र कहता ६८।।
(३) रूपमद द्वार :-प्रथम से ही शुक्र और रुधिर के संयोग से जिस रूप की उत्पत्ति है, उस रूप को प्राप्त करके मद करना योग्य नहीं है। जिसके नाश का कारण रोग है। पुद्गल का गलना, सड़ना, जरा और मरण यह साथ ही रहता है। ऐसे नाशवंत रूप में मद करना वह ज्ञानियों को मान्य नहीं है। विचार करने पर वस्त्र आभूषणादि के संयोग से कुछ शोभा दिखती है, हमेशा बार-बार मरम्मत करने योग्य, नित्य बढ़ने घटने के स्वभाव वाला, अंदर दुर्गंध से भरा हुआ, बाहर केवल चमड़ी से लिपटा हुआ और अस्थिर समान रूप में मद करने का कोई अवकाश ही नहीं है। कर्मवश विरूप वाला भी रूपवान और रूपवाला भी रूप रहित होता है। इस विषय में काकंदी निवासी दो भाइयों का दृष्टांत कहते हैं ।।६६७३।। वह इस प्रकार :
काकंदी के दो भाइयों की कथा __ अनेक देशों में प्रसिद्ध और विविध आश्चर्यों का स्थान भूत काकंदी नगरी में यश नामक धनपति रहता था। उसकी कनकवती नाम की स्त्री थी। और उनका देव कुमार समान रूप लक्ष्मी से जीवों को विस्मित करने वाला वसुदेव नाम का मुख्य पुत्र था। दूसरा स्कंदक नाम का पुत्र डरपोक नेत्रों वाला ठिगना शरीर वाला था। अधिक क्या कहें? सारे कुरूप वालों में वह उदाहरण रूप था। उनके दोनों पुत्रों को लोकोत्तर सुंदर रूपवाले और कुरूप वाले सुनकर कुतूहल से व्याकुल लोग दूर-दूर से उनको देखने के लिए आते थे। इस तरह समय व्यतीत होते एक दिन अवधि ज्ञानी विमलयश नाम के आचार्य वहाँ पधारें। उनका आगमन जानकर राजा आदि नगर निवासी और उस धनपति के दो पुत्र भी वंदन के लिए आये। गाढ़ भक्ति राग को धारण करते वे बार-बार प्रदक्षिणा देकर आचार्य श्री के चरणों में नमन कर अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठे। फिर धर्मकथा करते आचार्य श्री की दृष्टि अमीवृष्टि के समान किसी तरह उस धनपति के पुत्रों पर पड़ी। उस समय ज्ञान रूपी चक्षु से उनके
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