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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - अनुशास्ति द्वार-कुलमद द्वार-मरिचि की कथा प्राणियों की वेदना को सहन करते, दुःखी होते हुए भी मानो सुखी समान था । (सुख के पक्ष में) स्तन पीठ ऊपर से सरकते वस्त्रों वाला, महाप्रभा वाले रत्नों से उज्ज्वल शरीर की कांति के विस्तार वाला, मोती के हार को धारण करते राजलक्ष्मी और फल समूह को भोगते, हाथी, घोड़ों से शोभित महल में रहते और प्रकट चामर से सेवा होती थी। उसकी वामा नाम की प्रिय पत्नी ने उचित काल में किरणों के कांति समूह को फैलाते सूर्य के समान पुत्र को जन्म दिया। इससे बारहवें दिन राजा ने बड़े वैभव से जन्मकाल के अनुरूप उसका नाम 'मरिचि' स्थापन किया। बाल काल पूर्ण होने के बाद एक समय वह महात्मा मरिचि श्री ऋषभ जिनेश्वर के पास धर्म सुनकर प्रतिबोधित हुआ। जीवन को कमलिनी पत्र के अंतिम विभाग में लगे जल बिंदु समान चंचल और संसार में उत्पन्न होते सारे वस्तु समूह को विनश्वर जानकर, विषयसुख का त्यागी और स्वजनादि के राग की भी अपेक्षा बिना उसने श्री ऋषभदेव के पास संयम के उद्यम को स्वीकार किया । फिर उत्तम श्रद्धा से स्थविरों के पास सामायिकादि अंग सूत्रों का अध्ययन करते श्रीजिनेश्वर भगवान के साथ विचरने लगा । अन्यथा किसी समय सूर्य के प्रचंड किरणों से विकराल ग्रीष्म ऋतु आयी, तब पृथ्वी तल अति गरम हो गया और पत्थर के टुकड़े के समूह के स्पर्श समान कठोर स्पर्श वाला वायुमंडल हो गया और स्नान नहीं करने के कारण पीड़ित मरिचि इस तरह कुवेश का चिंतन करने लगा कि तीन दण्ड से विरक्त श्रमण भगवंत तो स्थिर शरीर वाले होते हैं, परंतु इन्द्रिय दण्ड को नहीं जीतने वाला मैं त्रिदण्ड का चिह्न वाला बनूँ । साधु लोच से मुण्डन मस्तक वाले होते हैं, मैं तो अस्त्र से मुण्डन वाला, चोटी रखने वाला बनूँ, मैं हमेशा स्थूल हिंसा की विरति वाला बनूँ । साधु अकिंचन (धन से रहित) होते हैं, परंतु मुझे तो कुछ परिग्रह होगा। साधु शील से सुगंध वाले हैं, मैं तो शील से दुर्गंध वाला हूँ। साधु मोह रहित है, मैं मोह से आच्छादित हुँ अतः छत्र धारण करूँगा, साधु जूते रहित होते हैं मैं तो जूते रखूँगा । साधु श्वेत वस्त्र वाले शोभा रहित होते हैं, मेरे रंगीन वस्त्र हों, क्योंकि - कषाय से कलुषित मति वाला में उसके योग्य हूँ। पापभीरु साधु अनेक जीवों से व्यास जल के आरंभ का त्याग करते हैं, मुझे तो परिमित जल से स्नान और जल पान भी होगा। इस तरह उसने स्वच्छंद बुद्धि से कल्पना कर बहुत विचित्र युक्तियों से संयुक्त, साधुओं से विलक्षण रूप वाला परिव्राजक वेश की प्रवृत्ति की। परंतु वह जिनेश्वर भगवान के साथ विहार करता था और भव्य जीवों को प्रतिबोध करके तीन जगत एक गुरु ऋषभदेव स्वामी को शिष्य रूप में अर्पण करता था । एक दिन भरत महाराजा समवसरण में आया और श्री ऋषभदेव स्वामी का अत्यंत वैभवशाली ऐश्वर्य देखकर पूछा कि - हे तात! आपके समान अरिहंत कितने होंगे? श्री जगत्गुरु ने कहा- अजितनाथ आदि तेईस जिनेश्वर और होंगे और तेरे सहित बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव तथा नव बलदेव भी होंगे। भरत ने फिर पूछाहे भगवंत! क्या इस आपकी देव, मनुष्य, असुर की इतनी विशाल पर्षदा में से इस भरत में कोई तीर्थंकर होगा ? तब प्रभु ने भरत को कहा - सिर के ऊपर छत्र धारण करने वाला, एकांत में बैठा मरिचि यह अंतिम तीर्थंकर होगा । और यही मरिचि पोतानपुर के अंदर वासुदेव में प्रथम होगा, विदेह में मूका नगरी में चक्रवर्ती की लक्ष्मी भी यही प्राप्त करेगा। यह सुनकर हर्ष आवेश में फैलते गाढ़ रोमांच वाला भरत महाराजा प्रभु की आज्ञा लेकर मरिचि को वंदन करने गया । परम भक्ति युक्त उसे तीन प्रदक्षिणा देकर, सम्यक् प्रकार से वंदन करके मधुर भाष में कहने लगा कि - हे महायश! आप धन्य हो, आपने ही इस संसार में प्राप्त करने योग्य सर्व कुछ प्राप्त किया है, क्योंकि तुम वीर नाम के अंतिम तीर्थंकर होंगे, वासुदेवों में प्रथम अर्द्ध भरत की पृथ्वी के नाथ होंगे और मूका नगरी में छह खण्ड पृथ्वी मंडल के स्वामी चक्री होंगे। मैं मनोहर मानकर तुम्हारे इस जन्म को तथा 280 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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