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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-अर्ह द्वार-चिलाती पुत्र की कथा अपने वश करने के विचार से उस साधु के आहार में वशीकरण चूर्ण डालकर वहोराया, उसके दोष से वह मुनि आयुष्यपूर्णकर देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ, और पति की मृत्यु से विरक्त होकर उसने भी दीक्षा ली, वह भी आलोचना किये बिना आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में उत्पन्न हुई। इधर यज्ञदेव का जीव देवलोक से आयुष्य पूर्ण कर राजगृह नगर में धन सार्थवाह के घर में साधुत्व पर घृणा करने के दोष से चिलाती नाम की दासी के पुत्र रूप में जन्मा। चिलाती दासी का पुत्र होने से लोगों में वह चिलातीपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यज्ञदेव की स्त्री स्वर्ग से च्यवकर उसी धन सार्थवाह की पत्नी भद्रा की कुक्षि से पाँच पुत्रों के बाद सुषमा नाम की पुत्री रूप में पैदा हुई। उसी पुत्री की देखभाल रखने के लिए सेठ ने चिलाती पुत्र को नियुक्त कर दिया वह सयाना होते ही अत्यंत कलह करने वाला और उदण्ड हो जाने से सार्थवाह ने उसे घर से निकाल दिया। वह घूमता फिरता एक पल्ली में गया वहाँ उसने गाढ़ विनय से पल्लीपति को अति प्रसन्न किया, फिर पल्लीपति मर गया तब चोर समूह इकट्ठा होकर 'यह योग्य है' ऐसा समझकर उसे पल्लीपति पद पर स्थापन किया और महा बल वाला अत्यन्त क्रूर वह गाँव, पुर, नगर आदि को मारने लूटने लगा। एक समय उसने चोरों को कहा कि-राजगृह नगर में धन नामक सार्थवाह रहता है, उसकी सुषमा नाम की पुत्री है, वह मेरी और धन लूटो वह सब तुम्हारा। अतः चलो वहाँ जाकर उसे लूटकर आयें। चोर सहमत हुए, फिर रात को वे राजगृह में गये और अवस्वापिनी निद्रा देकर उस समय धन सार्थपति के घर में प्रवेश किया, चोरों ने घर लूटा और चिलाती पुत्र ने भी उस सुषमा को ग्रहण की, पुत्रों सहित सार्थवाह भय से जल्दी अन्य स्थान पर चला गया। और इच्छित वस्तु लेकर पल्लीपति अपने स्थान की ओर चला। उसके बाद सूर्य उदय होते ही राजा के अनेक सुभटों से घिरे हुए पाँच पुत्रों सहित सार्थवाह शरीर पर मजबूत बख्तर धारणकर पुत्री के स्नेह से जल्दी उसके पीछे-पीछे चले। धन सार्थपति ने सुभटों को कहा-मेरी पुत्री वापिस लाओ तो धन तुमको दे दूंगा, ऐसा कहने से सुभट उसके पीछे दौड़े, उनको आते देखकर चोर धन छोड़कर भागे और उस धन को लेकर सुभट जैसे आये थे वैसे वापस चले गये। पुत्र सहित सार्थवाह अकेले भी चोरों के पीछे पड़े और शीघ्रमेव चिलाती पुत्र के पास पहुँच गये। इससे चिलाती ने 'यह सुषमा किसी की भी न हो' ऐसा सोचकर उसका सिर काट डाला और उसके मस्तक को लेकर जल्दी भाग गया. तथा निराश होकर सार्थपति वहाँ से वापिस आया। चिलातीपुत्र ने जंगल में घूमते हुए काउस्सग्ग ध्यान में स्थित एक महासत्त्व वाले मुनि को देखकर कहा-'अहो! महामुनि! मुझे संक्षेप से धर्म समझाओ, अन्यथा तेरे मस्तक को तलवार से फल समान काट दूंगा।' निर्भय मुनि ने इस तरह भी उपकार होने वाला है ऐसा जानकर कहा उवसमविवेयसंवरपयतियं धम्मसव्वस्सं ।।११५८।। उपशम, विवेक और संवर इन तीन पदों में धर्म का सर्वस्व तत्त्व है। इन पदों को धारण करके वह एकान्त में सम्यग रूप में चिन्तन करने लगा, उपशम शब्द का अर्थ यह होता है कि क्रोधादिकषायों का उपशम (सर्व का त्याग) करना है, वह क्रोधादि मेरे में से कम किस प्रकार हो सकते हैं? वह क्रोधादि क्षमा नम्रता आदि गणों का सेवन करने से शान्त हो सकते हैं। विवेक भी निश्चय से धन. स्वजन आदि त्याग करने से होता है तो अब मुझे तलवार से क्या प्रयोजन है अथवा इस मस्तक से क्या लाभ? और मैं इन्द्रियों और मन के विषयों से निवृत्ति रूपी त्याग-संवर अंगीकार करता हूँ। इस प्रकार चिंतन मनन करते तलवार और मस्तक त्यागकर नासिका के अग्रभाग में दृष्टि स्थापन कर मन, वचन, काया के व्यापार को त्यागकर बार-बार उन तीन पदों के चिंतन की गहराई में डूब गया और मेरु पर्वत के समान अति निश्चल वह काउस्सग्ग 54 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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