SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिवर्म द्वार-अर्ह द्वार-चिलाती पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला ध्यान में खड़ा रहा, इधर चिलाती पुत्र के शरीर पर लिपटे हुए खून की गंध से वहाँ आकर्षित होकर वज्र समान तीक्ष्ण चोंच युक्त मजबूत मुख वाली हजारों चींटियाँ आ गयीं और शरीर का चारों ओर से भक्षण करने लगीं, चींटियों ने पैर से मस्तक तक भक्षण करके चिलाती पुत्र के सारे शरीर को छलनी समान बना दिया फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। उस मुनि के शरीर को प्रचण्ड मुख वाली चींटियों ने भक्षण करने से शरीर में पड़े हुए छिद्र समस्त पाप को निकालने के लिए बड़े द्वार जैसे दिखने लगे। इस तरह उस बुद्धिमान ने ढ़ाई दिन तक घोर कष्ट को समभावपूर्वक सहनकर, उत्तम चारित्र धन वाले महात्मा के समान सहस्रार नामक आठवें देवलोक का सुख प्राप्त किया ।।११६७।। इस तरह अत्यन्त उग्र मन, वचन, काया द्वारा पाप करने वाला नरक अधिकारी भी स्वर्ग सुख का अधिकारी बना है। वह सर्व साधारण कहा है, अब यहाँ से प्रकृत-आराधना की योग्यता के विषय में कहते हैं वह सुनो : सम्यग् रूप से निश्चयपूर्वक परमार्थ का ज्ञाता, अनार्य लोग के कार्य को छोड़ने में उद्यमशील, और जो गुण कहेंगे ऐसे गुण वाला गृहस्थ आराधना के योग्य बनता है। सम्यग् दर्शन जिसका मूल है वे पाँच अणुव्रत से संयोग, तीन गुणव्रतों से युक्त और चार शिक्षाव्रतों से सनाथ, जो श्रमणोपासक का धर्म उसे निरतिचार पालन कर और दर्शन आदि ग्यारह पडिमाओं को पालकर अपने बल-वीर्य की हानि जानकर शुद्ध परिणाम वाला श्रावक जिनाज्ञा के अनुसार अन्तिम काल की आराधना करें। गुरुदेवों का योग प्राप्त कर संवेगी गीतार्थ साधु के समान पांच समिति से समित, तीन गुप्ति से गुप्त, सत्त्व, बल, वीर्य को नहीं रोकते। प्रतिदिन उत्तरोत्तर बढ़ते अत्यन्त श्रेष्ठ संवेग वाला, सूत्र अर्थ से मनोहर श्री जिन प्रवचन को सम्यग् रूप में जानकर उसकी आज्ञा में रहकर प्रयत्नपूर्वक अनुकूलता छोड़कर प्रतिकूलता को सहन करते, दृढ़ लक्ष्य वाला और प्रमाद के त्याग में लगा हुआ आत्मा, चरण करण के पालन में समर्थ निष्पाप, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम होने पर दीर्घकाल तक चारित्र पालन करता है और जब बल. वीर्य आदि कम होने लगता है तब आखिरी उम्र में शीघ्रमेव आराधना करें। अन्यथा बल. वीर्य आदि होने पर भी जो मूढ़ अन्तिम आराधना की इच्छा करे उसे मैं साधुता से हारा हुआ मानता हूँ, परन्तु जो धर्म स्वीकार करने के बाद शीघ्र ही विघ्न करने वाली व्याधि हो, अथवा मनुष्य, तिर्यंच अथवा देव के अनुकूल उपसर्ग हो, या शत्रु चारित्र धन का अपहरण-चारित्र भ्रष्ट करें, दुष्काल अथवा अटवी में अत्यन्त गलत मार्ग में चला जाये, जंघा बल खत्म हो जाये या इन्द्रियों में मन्दता आ जाय, नये-नये विशेष धर्म गुणों के प्राप्ति की शक्ति कम हो जाये, अथवा अन्य कोई ऐसा भयानक कारण बन जाय तो शीघ्रमेव अन्तिम आराधना करनी चाहिए, तो वह दोष रूप नहीं है। परन्तु जो स्वयं कुशील है, कुशील की संगति में ही प्रसन्न है, हमेशा पापी मन, वचन, काया रूप प्रचण्ड दण्ड वाला है वह आराधना के योग्य ही नहीं है। तथा प्रकृति से क्रूर चित्तवाला कषाय से कलुषित, महान भयंकर द्वेषी, अशान्त चित्तवाला, मोह से मूढ़, निदान करने वाला और जो जिन-सिद्ध, आचार्य आदि की आशातना में अति आसक्त, पर के संकट को देखकर मन में प्रसन्न होनेवाला, शब्दादि इन्द्रियों के विषयों में महान गद्धि वाला, सद्धर्म से पराङ्मुख, प्रमाद में तत्पर और सर्वत्र पश्चात्ताप बिना का हो वह भी आराधक नहीं होता है। तथा जो केवल स्वयं ही अधर्म वाला है इतना ही नहीं, परन्तु स्वभाव से दूसरें भी धर्मीजनों को विघ्न करने वाला, चैत्य द्रव्य, साधारण द्रव्य के द्रोह से दुष्ट, ऋषि हत्या करने वाले में आदर वाला और जो श्री जिनेश्वर के आगम की उत्सूत्र (विरोध में) उपदेश करने में तत्पर, और श्री जिन शासन के शरदचन्द्र की कीर्ति समान निर्मल यश का विनाश करने वाला और जो साध्वीजी के व्रत का भंग करने वाला महापापी, परलोक की इच्छा _ 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy