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________________ श्री संवेगरंगशाला प्रवेशक 'संवेगो मोक्षाभिलाषः।' अर्थात् मोक्ष साधना की उत्कट अभिलाषा संवेग है। सर्वार्थ सिद्धि में भी संवेग की व्याख्या मिलती है कि 'संसार दुःखान्नित्य- भीरुता संवेगः' अर्थात् संसार के दुःखों से हमेशा डरना, उससे सावधान रहना संवेग है। आचार्य श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय के सातवें सूत्र में कहा है - 'जगत्कायस्वभावौ च संवेग वैराग्यार्थम्।' अर्थात् जगत के स्वभाव के चिन्तन से संसार के प्रति मोह दूर होता है वह संवेग है। इसी प्रकार काया के अस्थिर, अशुचि और असारता स्वभाव के चिन्तन से अन्यसत्ति, भाव उत्पन्न होता है, वही वैराग्य है। ___ इस संवेग रंगशाला का अचिन्त्य महाप्रभाव है। इसका पात्र बनते ही जीव का स्वरूप बदल जाता है। वह मुमुक्षु कहलाने लगता है। मुमुक्षु बनने पर वह संसार के स्वरूप को वास्तविक नहीं मानता, मोहराजा का झूठा जाल समझता है, भौतिक सर्व पदार्थ उसे क्षणिक मधुरता व सुन्दरता रहित असार दिखाई देने लगते हैं। वह संसार को दुःखमय, अशुचिमय, पापयुक्त, अज्ञानमय, प्रमादमय और कषाय-युक्त मानता है। अपने को ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय एवं पूर्ण सहजानंदमय बनाने की पवित्र भावना उसके प्रत्येक आत्मप्रदेश में गूंज उठती है। संसार से मुक्त होने की और स्वात्मा के स्वरूप प्रकट करने की तीव्र अभिलाषा अथवा मोक्ष प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा रखने वाला उत्कट संवेग उत्पन्न होता है। संवेग की महिमा का गुण गान परम पूज्य ग्रन्थकार श्री ने स्वयं इसी ग्रन्थ में ५५वें श्लोक में किया है : एसो पुण संवेगो, संवेग परायणेहिं परिकहिओ । परमं भव भीरुत्तं, अहवा मोक्खभिकंखित्तं ।। अर्थात् :- संवेग रस के ज्ञाता श्री तीर्थंकर परमात्मा और गणधर भगवंत ने संसार के तीव्रभय को अथवा मोक्ष की अभिलाषा को संवेग कहा है। ग्रन्थकार श्री ने आगे और भी वर्णन किया है कि-संवेग के साथ निर्वेद आदि परमार्थ तत्त्वों का जिसमें विस्तार हो वह शास्त्र श्रेष्ठतम शास्त्र कहलाता है। संवेग गर्भित अति प्रशस्त शास्त्र का श्रवण श्रेष्ठ पुरुषों को ही मिलता है। चिरकाल तक तप किया हो, शुद्धचारित्र का पालन किया हो, बहुश्रुतज्ञान का भी अभ्यास किया हो, परन्त संवेग रस प्रकट न हआ हो तो वह सब निष्फल है। दीर्घकाल तक संयम पालन तप आदि पालन का सार ही संवेग है। पूरे दिन में यदि क्षण भर भी संवेग रस प्रकट नहीं हुआ तो इस बाह्य काया की कष्ट रूप क्रिया से क्या लाभ? जिसको पक्ष में, महीने में, छह महीने में अथवा वर्ष के अंत में संवेग रस प्रकट नहीं हुआ उसे अभव्य अथवा दुर्भव्य जीव जानना। अतः संवेग के बिना दीर्घ आयुष्य, अथवा सुख संपत्ति, सारा ज्ञान, ध्यान संसार वर्धक है। और भी कहा है कि 'कर्म व्याधि से पीड़ित भव्य जीवों के लिए उस व्याधि को दूर करने का एकमात्र उपाय संवेग है। इसलिए श्री जिन वचन के अनुसार संवेग की वृद्धि के लिए आराधना रूपी महारसायन इस ग्रन्थ को कहूँगा, जिससे मैं स्वयं और सारे भव्यात्मा भाव आरोग्यता प्राप्त करके अनुक्रम से अजरामर मोक्षपद प्राप्त करेंगे। __ संवेगरंगशाला नामक इस आराधना शास्त्र में नाम के अनुसार ही सभी गुण विद्यमान हैं। इसके मुख्य चार विभाग हैं। (१) परिक्रम विधि द्वार, (२) परगण संक्रमण द्वार, (३) ममत्व विमोचन द्वार और (४) समाधि लाभ द्वार। इसमें भी भेद, प्रभेद, अन्तर भेद आदि अनेक भेदों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। वह विषयानुक्रमणिका देखने से स्पष्ट हो जायगा। इस महाग्रन्थ का विषय इतना महान विस्तृत है कि उसको समझाने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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