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________________ प्रवेशक प्रवेशक रंगशाला का अर्थ है नाट्य भूमि अथवा नाट्य मंच, जहाँ पर नाटक खेला जाता है। यह रंगशाला दो प्रकार की होती है। प्रथम संसार रंगशाला, जहाँ अनेक आत्माएँ विविध प्रकार का अभिनय कर रही हैं और दूसरी संसार से मुक्त कराने वाली संवेग रंगशाला । संसार रंगशाला के सूत्रधार मोह राजा हैं, तथा राग द्वेषादि उसके प्रतिनिधि हैं। जब कि संवेग रंगशाला के सूत्रधार धर्मराजा हैं, और तीर्थंकर, गणधर आदि उसके प्रतिनिधि हैं। संसार रंगशाला का स्वरूप अति विशाल और विलक्षण है। संसार का अर्थ ही 'संसरण' परिभ्रमण का है, वह लाख करोड़ बार ही नहीं, परन्तु संख्यातीत अनंतानंत बार संसारी जीव इस संसार रूपी नाट्य मंच के पात्र बनकर विविध प्रकार के अभिनय, नृत्य गान कर रहा है। संसार रूपी नाटक का कोई ऐसा पात्र न होगा, जिसका इस संसारी जीवात्मा ने वेश धारण न किया हो, वह भी एक बार ही नहीं, अनन्त बार धारण किया। कभी राजा का वेश धारण किया, कभी रंक बना, कभी पशु, कभी पक्षी के वेश में, कभी नरक-जीव बना तो कभी देव रूप धारण किया। इस प्रकार विविध वेश धारण करके संसारी आत्मा अनादि अनंतकाल से चार गति रूपी चौरासी लाख योनिमय संसार रूपी रंगभूमि पर नृत्य कर रहा है। अनादि अनंतकाल से इसी तरह परिभ्रमण कर रहा है, फिर भी वह थका नहीं है और न ही उसे अपना सच्चा आत्मज्ञान हुआ है। संसार रंगशाला के मुख्य सूत्रधार मोहराजा द्वारा प्रदत्त महामोहमय मदिरा पान कर अपनी सम्पूर्ण चेतना खो बैठा है, उसे यह भी ज्ञान नहीं है कि 'मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? मेरा क्या स्वरूप है?' इस प्रकार वह मोहाधीन जीवात्मा अपना वास्तविक परिचय भूल गया है। वह जिस अवस्था में है, चाहे पशु है अथवा पक्षी है, राजा है या रंक है, दुःख और दीनता का अनुभव करता हुआ भी वह अपने आप को सुखी मानता है और उसमें हर्ष होता है। उसीमें तन्मय रहता है, परन्तु उसका वास्तविक जीवन करुणामय, बीभत्स स्वरूप वाला, रौद्र परिणाम वाला, एवं अद्भुत हास्यमय दीन हीन भिखारी के समान है। वह ऊपर से श्रृंगार सदृश सुन्दर दृष्टिगोचर होता है, परंतु अन्दर से वह रोग, शोक, जरा, मृत्यु आदि से लिप्त होने के कारण भयानक है एवं मोह ममता के कारण वात्सल्य वाला लगता है। इस प्रकार दुःखमय समस्त नौ रस' इस संसार रंगशाला में समाये हुए हैं। संवेग रंगशाला के प्रतिनिधि श्री तीर्थंकर परमात्मा संसारी आत्माओं की भयंकर करुणा जन्य अवस्था को देखकर अपनी वात्सल्यता की अमिदृष्टि से जीवात्माओं को मोहराजा के बंधन से सदा के लिए मुक्त कराने का प्रयास करते हैं। वे जीवों को संसार का यथार्थ स्वरूप समझा-बुझाकर संसार रंगशाला की पात्रता से मुक्ति दिलाकर संवेग रंगशाला का पात्र बनाते हैं । उस जीव को पुद्गलानंदी से आत्मानंदी बनाते हैं, इतना ही नहीं वे स्वयं भक्त से भगवान, नर से नारायण और आत्मा से परमात्मा बनने के मार्गदर्शक बनते हैं। यही तीर्थ स्थापना है, जिसे 'जिन शासन' कहा जाता है। यही वास्तविक संवेग रंगशाला है। इस रंगशाला में वैराग्यमय शान्त रस होता है। श्री संवेगरंगशाला 'संवेग' शब्द 'सम् उपसर्ग' 'विज् धातु' में 'धज प्रत्यय' लगने से बना है जिसका अर्थ है विक्षोभ, उत्तेजना, प्रचंडगति अथवा वेदना । अर्थात् मोक्षानंद की बात का विक्षोभ होना, मोक्ष प्राप्ति की उत्तेजना होना, मोक्ष प्राप्ति में उत्साहपूर्वक शीघ्रगामी बनना, इस प्रकार मोक्ष अभिलाषा के लिए तड़पाने वाली पीड़ावेदना आदि में संवेग का प्रयोग होता है। योगशास्त्र के दूसरे प्रकाश श्लोक १५ वें की टीका में लिखा है। 1. १. शृंगार रस, २. हास्य रस, ३. करुण रस, ४ रौद्र रस, ५. वीर रस, ६. भयानक रस, ७. बिभत्स रस, ८. अद्भुत रस, ६. शांत रस। 1 www.jainelibrary.org. Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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