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समाधि लाअ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार-गंध में गंध प्रिय का प्रबंध
श्री संवेगरंगशाला
अपनी पत्नी में ही अत्यंत वश हुआ ।।९०४९।।
कुछ समय व्यतीत होते एक दिन राजा सुभट के समूह से घिरा हुआ हाथी पर बैठकर, सुंदर चमर के समूह से ढूलाते और ऊपर श्वेत छत्र वाले उस सेनापति के साथ घूमने चला, उस समय उस सेनापति की पत्नी ने विचार किया कि- 'मैं अपलक्षणी हूँ।' ऐसा मानकर राजा ने मुझे क्यों छोड़ दिया? अतः मैं वापिस आते उसका दर्शन करूँ। ऐसा विचारकर निर्मल अति मूल्यवान रेशमी वस्त्रों को धारणकर राजा के दर्शन के लिए मकान पर चढ़कर खड़ी रही। राजा भी बाहर श्रेष्ठ घोड़े, हाथी और रथ से क्रीड़ा करके अपने महल में जाने की इच्छा से वापिस आया। और आते हुए राजा की विकासी कमल पत्र के समान दीर्घ दृष्टि किसी तरह खड़ी हुई उसके ऊपर गिरी। इससे उसमें एक मन वाला बना राजा क्या यह रति है? क्या रम्भा है? अथवा क्या पाताल कन्या है? या क्या तेजस्वी लक्ष्मी है? इस प्रकार चिंतन करते एक क्षण खड़ा रहकर जैसे दुष्ट अश्व की लगाम से काबू करता है वैसे चक्षु को लज्जा रूपी लगाम से अच्छी तरह घुमाकर महा मुश्किल से अपने महल में पहुँचा। और सभी मंत्री सामंत तथा सुभट वर्ग को अपने-अपने स्थान पर भेजकर, अन्य सर्व प्रवृत्ति छोड़कर मुसीबत से शय्या पर बैठा। फिर उसके अंग और उपांग की सुंदरता देखने से मन से व्याकुलित बनें उस राजा का अंग काम से अतीव पीड़ित होने लगा। इससे कमल समान नेत्रवाली उसे ही सर्वत्र देखते तन्मय चित्त वाला राजा चित्र के समान स्थिर हो गया। और उसी समय पर सेनापति आया, तब राजा ने पूछा कि-उस समय तेरे घर ऊपर कौन देवी थी? उसने कहा कि-देव! यह वही थी कि जिस सार्थवाह की कन्या को आप ने छोड़ दी थी, अब वह मेरी पत्नी होने से पराई है। अरे! निर्दोष भी उस स्त्री को दोषित बताने वाले पापी वे अधिकारी मेरे पुरुषों ने मुझे क्यों ठगा? इस प्रकार अति चिंतातुर राजा लम्बा श्वास लेकर दुःसह कामाग्नि से कठोर संताप हुआ। राजा के दुःख का रहस्य जानकर सेनापति ने समय देखकर कहा कि-हे स्वामी! कृपा करो, उस मेरी पत्नी को आप स्वीकार करो। क्योंकि सेवकों का प्राण भी अवश्य स्वामी के आधीन होते हैं। तो फिर बाह्य पदार्थ धन, परिजन, मकान आदि के विस्तार को क्या कहना?
यह सुनकर राजा हृदय में विचार करने लगा कि-एक ओर कामाग्नि अत्यंत दुःसह है दूसरी ओर कुल का कलंक भी अति महान है। यावच्चन्द्र काले अपयश की स्पर्शनारूप और नीति के अत्यंत घात रूप परस्त्री सेवन मेरे लिए मरणांत में भी योग्य नहीं है। ऐसा निश्चय करके राजा ने सेनापति से कहा कि-हे भद्र! ऐसा अकार्य पुनः कभी भी मुझे मत कहना। नरक रूप नगर का एक द्वार और निर्मल गुण मंदिर में मसि का काला कलंक परदारा का भोग नीति का पालन करने वाले से कैसे हो सकता है? तब सेनापति ने कहा कि-हे देव! यदि परदारा होने से नहीं स्वीकार करते, तो आप के महल में यह नाचने वाली वेश्या रूप में दूँ। उसके बाद वेश्या मानकर भोग करने से आपको परस्त्री का दोष भी नहीं लगेगा। इसलिए इस विषय में मुझे आज्ञा दीजिए। राजा ने कहा कि-चाहे कुछ भी हो मैं मरणांत में भी ऐसा अकार्य नहीं करूँगा। अतः हे सेनापति! अधिक बोलना बंध करो। फिर नमस्कार करके सेनापति अपने घर गया। राजा भी उसे देखने के अनुराग रूप अग्नि से शरीर अत्यंत जलते हुए राजकार्यों को छोड़कर हृदय में इस प्रकार कोई तीव्र आघात लगा कि जिससे आर्त्तध्यान के वश मरकर तिर्यंच में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार चक्षुराग के दोष को कहा। अब घ्राण राग के दोष संक्षेप से कहते हैं।।९०७६।।
गंध में गंध प्रिय का प्रबंध अति गंध प्रिय एक राज पुत्र था। वह जिस-जिस सुगंधी पदार्थ को देखता था, उन सब को सूंघता था।
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