SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि लाभ द्वार-ग्यारहवाँ चार शरण द्वार श्री संवेगरंगशाला सुंदर विविध युक्तियों से युक्त, पुनरुक्ति दोषों से रहित, शुभ आशय का कारण, अज्ञानी मनुष्यों को जानने में दुष्कर नय, भंग, प्रमाण और गम से गंभीर, समस्त क्लेशों का नाशक, चंद्र समान उज्ज्वल गुण समूह से युक्त सम्यग् जिन धर्म की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग में चलते आराधक सर्व संवेगी भव्य आत्माओं को प्रमेय पदार्थ प्रमाद से अबाधित है, जो अनंत श्रेष्ठ प्रमाणभूत है, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सर्व का व्यवस्थापक है, जो सकल लोकव्यापी है, जन्म, जरा और मरणरूपी वेताल का निरोध करने में जो परम सिद्ध मंत्र है, शास्त्र कथित पदार्थों के विषय में हेय, उपादेय रूप जिसमें सम्यग् विवेक है उस जैन धर्म के आगम की, हे सुंदरमुनि! तूं सम्यक् शरणरूप स्वीकार कर। सर्व नदियों की रेती कण और सर्व समुद्रों का मिलन रूप समुदाय से भी प्रत्येक सूत्र में अनंतगुणा, शुद्ध सत्य अर्थ को धारण करते, मिथ्यात्वरूपी अंधकार से अंध जीवों को व्याघातरहित प्रकाश करने में दीपक तुल्य, दीन दुःखी को आश्वासन देने में आशीर्वाद तुल्य, संसार समुद्र में डूबते जीवों को द्वीप के समान, और इच्छा से अधिक देने वाला होने से चिंतामणि से भी अधिक, श्री जिन कथित धर्म को, हे क्षपक मुनि! तूं इसकी शरण स्वीकार कर। जगत के समग्र जीव समूह के पिता समान हितकारी, माता के समान वात्सल्यकारी, बंधु के समान गुणकारक और मित्र के समान द्रोह नहीं करने वाला, विश्वसनीय, श्रवण करने योग्य, भावों का जिसमें विकास है, अर्थात् सुनने योग्य सर्वश्रेष्ठ भाव हों, लोक में दुर्लभ भावों से भी अति दुर्लभ भाव, अमृत के समान अति श्रेष्ठ है, मोक्ष मार्ग का अनन्य उत्कृष्ट उपदेशक और अप्राप्त भावों को प्राप्त कराने वाले तथा प्राप्त भावों का पालन करने वाले श्री जिनेन्द्र द्वारा प्ररुपित धर्म का, हे सुंदर मुनि! तूं सम्यग् रूप से शरण स्वीकार कर। जैसे वैरियों की बड़ी सेना से घिरा हुआ मनुष्य रक्षण चाहता है, अथवा जैसे समुद्र में डूबता हुआ नाव को स्वीकार करता है, वैसे हे सुंदर मुनि! यथार्थ बोध कराने वाला अंग प्रविष्ट अनंग प्रविष्ट उभय प्रकार के श्रुत रूप धर्म का और विधि निषेध के अनुसार क्रियाओं से युक्त, चारित्र रूप धर्म की, तूं शरण स्वीकार कर। आठ प्रकार के कर्म समूह को नाश करने वाला, दुर्गति का निवारण करने वाला, कायर मनुष्यों को चिंतन अथवा सुनने को भी दुर्लभ, तथा अतिशयों से विचित्र द्रव्य, भाव, रूप सभी अति प्रशस्त महा प्रयोजन की लब्धि रूप, ऋद्धि में कारणभूत और असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, किन्नर, व्यंतर तथा राजाओं के समूह को भी वंदनीय गुणवाला श्री जिनेश्वरों के धर्म की हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। सद्भाव बिना भी केवल बाह्य क्रिया कलाप रूप में भी हमेशा करते जिस धर्म का फल |वेयक देव की समृद्धि की प्राप्ति है और भावपूर्वक उत्कृष्ट आराधना करते इसी जन्म अथवा जघन्य से आराधक को सात आठ जन्म में मुक्ति का फल देता है। इस प्रकार लोकोत्तम गुण वाला, लोकोत्तम गुणधारी गणधर भगवंतों से रचित, लोकोत्तम आत्माओं ने पालन किया हुआ और फल भी लोकोत्तम सर्वश्रेष्ठ देनेवाला, श्री केवली भगवंतों द्वारा कथित और सिद्धांत रूप में गणधरों ने गूंथा हुआ भगवान के रम्य (सुंदर) धर्म की, हे धीर मुनि! तूं सम्यक् शरण स्वीकार कर। चार शरण द्वार का उपसंहार :- इस तरह हे क्षपक मुनि! चार शरण को स्वीकार करने वाला और कर्मरूपी महान् शत्रु से उत्पन्न हुए भय को भी नहीं मानने वाला-निर्भय, तुम शीघ्रमेव इच्छित अर्थ को प्राप्त करो। इस प्रकार 'चार शरण का स्वीकार' नामक ग्यारहवाँ अंतर द्वार कहा। अब दुष्कृत गर्दा नामक बारहवाँ अंतर द्वार कहता हूँ ।।८३२३ ।। 347 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy