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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गहरे द्वार बारहवाँ दुष्कृत गरे द्वार : हे धीर मुनिराज! श्री अरिहंत आदि चार की शरण स्वीकार करने वाला तूं अब भावी कटु विपाक को रोकने के लिए दुष्कृत्य की गर्दा कर अर्थात् पूर्व में किये पापों की निंदा कर। उसमें श्री अरिहंतों के विषय में अथवा उनके मंदिर-चैत्यालय के विषय में, श्री सिद्ध भगवंतों के विषय में, श्री आचार्यों के विषय में, श्री उपाध्यायों के विषय में, तथा श्री साधु, साध्वी के विषय में, इत्यादि अन्य भी वंदन, पूजन, सत्कार या सन्मान करने के योग्य विशुद्ध सर्व धर्म स्थानों के विषय में तथा माता, पिता, बंधु, मित्रों के विषय में अथवा उपकारियों के विषय में कदापि किसी भी प्रकार से, मन, वचन, काया से भी अनुचित किया हो और जो कोई उचित भी नहीं किया हो, उन सबकी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् गर्दा (स्वीकार) कर। आठ मद स्थानों में और अठारह पाप स्थानकों में भी किसी तरह कभी भी प्रवृत्ति की हो, उसकी भी निंदा कर। क्रोध, मान, माया, अथवा लोभ द्वारा भी जो कोई बड़ा या छोटा भी पाप किया, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उसकी भी निंदा कर। राग, द्वेष से अथवा मोह से-अज्ञानता से, विवेक रत्न से भ्रष्ट हुए तूंने इस लोक या परलोक विरुद्ध जो भी कार्य किया हो उसकी गर्दा कर। इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मिथ्या दृष्टि के वश होकर तूंने श्री जिनमंदिर, श्री जिनप्रतिमा और श्री संघ आदि की मन, वचन, काया से निश्चयपूर्वक जो कोई प्रद्वेष अवर्णवाद-निंदा तथा नाश आदि किया हो, उन सर्व की भी त्रिविध-त्रिविध हे सुंदर मुनि! तूं गर्दा कर। मोह रूपी महाग्रह से परवश हुआ और इससे अत्यंत पाप बुद्धि वाला, तूं लोभ से आक्रांत मन द्वारा यदि किसी श्री जिन प्रतिमा का भंग किया हो, गलाया हो, तोड़ा-फोड़ा या क्रय-विक्रय आदि पाप स्व-पर द्वारा किया हो, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उसकी सम्यक् गर्दा कर। क्योंकि यह तेरा आत्म साक्षी से गर्दा करने का समय है। तथा इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मिथ्यात्व का विस्तार करने वाला, सूक्ष्म-बादर अथवा त्रस-स्थावर जीवों का एकांत से विनाश करने वाला जैसे कि उखल, रहट, चक्की, मूसल, हल, कोश आदि शस्त्रों को रखें हो। तथा धर्म बुद्धि से अग्नि को जलाया, जैसे कि खेत में काँटे जलाना, जंगल जलाना, आदि पाप कार्यों को किये, वाव, कुँए, तालाब, आदि खुदवाये अथवा यज्ञ करवाया इत्यादि जो हिंसक कार्य किये हों, उन सबकी गर्दा कर। सम्यक्त्व को प्राप्त करके भी इस जन्म में जो कोई उसके विरुद्ध आचरण किया हो, उन सर्व की भी संवेगी तूं सम्यग् गर्दा कर। इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में साधु या श्रावक होने पर भी तूंने श्री जिनमंदिर, प्रतिमा, जैनागम और संघ आदि के प्रति रागादि वश होकर 'यह अपना, यह पराया है' इत्यादि बुद्धि-कल्पनापूर्वक यदि थोड़ी भी उदासीनता की हो, अवज्ञा की हो अथवा व्याघात या प्रद्वेष किया हो उन सर्व का भी, हे क्षपकमुनि! तूं त्रिविध-त्रिविध मन, वचन, काया से करना,कराना, अनुमोदन द्वारा सम्यक् प्रतिक्रमण कर। श्रावक जीवन प्राप्त कर तूंने अणुव्रत, गुणव्रत आदि में जो कोई भी अतिचार स्थान मन से किया हो उसका भी प्रतिघात-गर्दा कर। तथा इस जन्म में अथवा पर-जन्म में यदि कोई अंगार कर्म, वन कर्म, शकट कर्म, भाटक कर्म एवं यदि कोई स्फोटक कर्म या तो कोई दांत का व्यापार, रस का व्यापार, लाख का व्यापार, विष का व्यापार या केश व्यापार, अथवा जो कोई यंत्र पिल्लण कर्म, निलांछन कर्म, जो दावाग्नि दान, सरोवर द्रह, तालाबादि का शोषण या किसी असती का पोषण किया हो या करवाया हो तथा अनुमोदन किया हो उन सर्व का भी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् दुर्गच्छा-गर्दा कर। और यदि कोई भी पाप को प्रमाद से, अभिमान से, इरादापूर्वक, सहसा अथवा उपयोग शून्यता से भी किया हो, उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर ।।८३४८|| यदि दूसरे का पराभव करने से, अथवा दूसरे को संकट में देखकर सुख का अनुभव करने से, दूसरे की हंसी करने से, अथवा पर का 348 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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