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समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्हा द्वार
श्री संवेगरंगशाला विश्वासघात करने से, अथवा यदि पर दाक्षिण्यता से या विषयों की तीव्र अभिलाषा से अथवा तो क्रीड़ा, मखौल, या कुतूहल में आसक्त चित्त होने से, अथवा आर्त्त-रौद्र ध्यान से, वह भी सप्रयोजन या निष्प्रयोजन, इस तरह जो कोई भी पाप उपार्जन किया हो उन सबकी भी गर्दा कर। तथा मोहमूढ़ बनें यदि तूंने धर्म सामाचारी-सम्यग् आचार का या नियमों अथवा व्रतों का भंग किया हो उसकी भी प्रयत्नपूर्वक शुद्ध भाव से निंदा कर। तथा इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में मिथ्यात्व रूपी अंधकार से अंध बनकर तूंने सुदेव में यदि अदेव बुद्धि, अदेव में सुदेव बुद्धि, सुगुरु में अगुरु बुद्धि अथवा अगुरु में भी सुगुरु, तथा तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि या अतत्त्व में तत्त्व की बद्धि और धर्म में अधर्म की बद्धि अथवा अधर्म में धर्म की बद्धि की हो. करवाई हो तथा अनमोदन किया हो. उसकी विशेषतया निंदा कर। एवं मिथ्यात्व मोह से मूढ़ बनकर तूंने सर्व प्राणियों के प्रति यदि मैत्री नहीं रखी हो, सविशेष गुण वालों के प्रति भी यदि प्रमोद न रखा हो, दुःखी पीड़ित जीवों के प्रति यदि कदापि करुणा नहीं की हो तथा पापासक्त अयोग्य जीव के प्रति यदि उपेक्षा न की हो और प्रशस्त शास्त्रों को भी सुनने की यदि इच्छा नहीं की, और श्री जिनेश्वर कथित चारित्र धर्म में यदि अनुराग नहीं किया तथा देव गुरु की वैयावच्च नहीं की, परंतु उनकी यदि निंदा की हो, उन सर्व की भी, हे सुंदर मुनिवर्य! तूं आत्मसाक्षी से संपूर्ण रूप से निंदा कर और गुरु के समक्ष गर्दा कर। भव्य जीवों के अमृत तुल्य अत्यंत हितकर भी श्री जिनवचन को यदि सम्यग् रूप में नही सुना
और सुनकर सत्य नहीं माना, तथा सुनने और श्रद्धा होने पर भी बल और वीर्य होने पर पराक्रम और पुरुषकार होने पर भी यदि सम्यक् स्वीकार नहीं किया, स्वीकार करके भी यदि सम्यक् पालन नहीं किया। दूसरे उसे पालन में परायण जीवों के प्रति यदि प्रद्वेष धारण किया हो और प्रद्वेष से उसके साधन अथवा उनकी क्रिया का यदि भंग किया हो उन सबकी तूं गर्हा कर! क्योंकि हे सुंदर मुनि! यह तेरा गर्दा करने का अवसर है। तथा ज्ञान, दर्शन या चारित्र में अथवा तप या वीर्य में भी यदि कोई अतिचार सेवन किया हो तो उसकी निश्चय से त्रिविध गर्दा कर।
ज्ञानाचार में :- अकाल समय में, विनय बिना, बहुमान बिना, यथा योग, उपधान किये बिना सूत्र और अर्थ का अभ्यास करते, पढ़ते हुए को तूं रुकावट वाला बना, तथा श्रुत आदि को अश्रुत कहा,अथवा सूत्र, अर्थ या तदुभय के विपरीत करने से भूत, भविष्य या वर्तमान में किसी भी प्रकार में यदि कोई ज्ञानाचार के विषय में अतिचार सेवन किया हो उन सब की त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर।
दर्शनाचार में :- जीवादि तत्त्व संबंधी देश शंका या सर्व शंका, अथवा अन्य धर्म को स्वीकार करने की इच्छा रूप देश या सर्वरूप, दो प्रकार की कांक्षा, तथा दान, शील, तप भाव आदि धर्म के फल विषय में अविश्वास रूप विचिकित्सा को, अथवा पसीने आदि के मेल से मलिन शरीर वाले मुनियों के प्रति दुर्गंध को करते
और अन्य धर्म की पूजा प्रभावना आदि देखकर अन्य धर्म में मोहित होना, तथा धर्मीजनों की प्रशंसा, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना नहीं करते, तूंने भूत, वर्तमान या भविष्य काल संबंधी दर्शनाचार के विषय में जो अतिचार सेवन किया हो, उन सबकी त्रिविध-त्रिविध से गर्दा कर।
चारित्राचार में :- मुख्य जो पाँच समिति और तीन गुप्ति इनमें यदि अतिचार सेवन किया हो, उसमें प्रथम समिति में यदि अनुपयोग से चला हो, दूसरी समिति में अनुपयोग से, वचन उच्चारण किया हो, तीसरी समिति में अनुपयोग से आहार आदि को ग्रहण किया हो, चौथी समिति में अनुपयोग से पात्र आदि उपकरण लिया रखा हो, तथा पाँचवीं समिति में त्याग करने योग्य वस्तु को जयणा बिना से त्याग किया हो, तथा पहली गुप्ति के विषय में मन को अनवस्थित-चंचलत्व धारण किया हो, दूसरी गुप्ति में बिना प्रयोजन अथवा प्रयोजन में भी उपयोग रहित वचन बोला, और तीसरी गुप्ति में काया से अकरणीय अथवा करणीय कार्य में उपयोग रहित प्रवृत्ति
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