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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्हा द्वार की हो, इस प्रकार आठ प्रवचन माता रूप चारित्र में तीनों काल में यदि कोई भी अतिचार का सेवन किया हो, उन सबकी भी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् गर्दा कर। तथा राग द्वेष और कषाय आदि वृद्धि द्वारा तूंने यदि चारित्र रूप महारत्न को मलिन किया हो उसकी भी विशेषतया निंदा कर ।।८३७८।। फिर : ___ बारह प्रकार के तप में :- कभी भी किसी तरह अतिचार सेवन किया हो उन सब तपाचार के अतिचार की भी, हे धीर मुनि! सम्यग् गर्दा कर। वीर्याचार में :-बलवीर्य-पराक्रम होने पर भी ज्ञानादि गुणों में यदि पराक्रम नहीं किया, उन वीर्याचार के अतिचार की गर्दा कर। ___ यदि इस प्रकार के यति धर्म में अथवा मूल और उत्तर गुण के विषय में यदि अतिचार सेवन किया हो उसकी भी हे धीर मुनि! त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। मूल गुणों के अंदर प्राणि-वध आदि छोटे बड़े कोई भी अतिचार सेवन किया हो उन सब की भी सम्यग् गर्दा कर। और पिंड विशुद्धि आदि उत्तर गुणों में भी यदि छोटें बड़ें अतिचार सेवन किये हों उसकी भी भावपूर्वक गर्दा कर। मिथ्यात्व से ढके हुए शुद्ध बुद्धि वाले तूंने धार्मिक लोगों की अवज्ञा रूप जो पापाचरण किया हो उन सबकी गर्दा कर। और आहार, भय, परिग्रह तथा मैथुन इन संज्ञाओं के वश चित्तवाले तूंने यदि कोई भी पापाचरण किया हो, उसकी भी इस समय तूं निंदा कर। इस तरह गुरु महाराज क्षपक मुनि को दुष्कृत की गर्दा करवाकर पुनः दुष्कृत गर्दा के लिए इसी तरह यथायोग्य क्षमापना भी करावे-हे क्षपक मुनि! चार गति में भ्रमण करते तूंने यदि किसी भी जीवों को दुःखी किया हो उसकी क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का समय है। जैसे कि नारक जीवन में कर्म वश नरक में पड़े हुए अन्य जीवों को तूंने भवधारणीय तथा उत्तर वैक्रिय रूप शरीर से बलात्कार पूर्वक यदि बहुत कठोर दुःसह महा वेदना दी हो उन सबसे तूं क्षमा याचना कर। यह तेरा अब क्षमायाचना का समय है। तथा तिर्यंच जीवन में भ्रमण करते एकेन्द्रिय योनि प्राप्त कर तंने वर्ण. गंध. रस और स्पर्श से भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्य पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों को अन्योन्य मिलन रूप शस्त्र से यदि किसी की कभी भी विराधना की हो उसकी भी क्षमा याचना कर। तथा एकेन्द्रिय योनि से ही द्वीन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तक के जीवों की भी जो कोई विराधना की हो उनसे भी क्षमा याचना कर। उसमें पथ्वीकाय शरीर से निश्चय द्वीन्द्रिय जीवों को तेरी पत्थर, लोहे आदि काया के पुद्गल द्वारा अथवा पृथ्वी शरीर के किसी भी विभाग का अवयव रूप में गिरने से विराधना हुई हो, अपकाय, जलकाय के शरीर से उन जीवों का उसमें डूबोने से या बर्फ, ओले, वर्षाधारा तथा जल सिंचन आदि के द्वारा पीड़ा करने से, तेज-अग्निकाय भी बिजली रूप गिरने से, जलती अग्नि रूप गिरने से, वन में दावानल लगने से और दीपक आदि से द्वीन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करने से, वायु काय में भी निश्चय उन जीवों का शोषण, हनन, उड़ाना अथवा भगाना आदि से विराधना हुई हो, वनस्पति रूप में उनके ऊपर वृक्ष की डाली रूप गिरी हो और तूं उनके प्रकृति से विरुद्ध जहर रूप वनस्पति में उत्पन्न हुआ हो तब उसके भक्षण से उनका नाश विराधना हुई हो, तथा द्वीन्द्रिय आदि योनि प्राप्त कर तूंने एकेन्द्रिय आदि अन्य जीवों की विराधना की हो, इस तरह जो-जो विराधना की हो उन सबकी भी अवश्यमेव त्रिविध क्षमा याचना कर। उस विराधना की भावना स्वरूप स्पष्ट है ही क्योंकि केंचुआ आदि से मेंढक तक अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव बड़े होने पर प्रथम शरीर रूप भी पृथ्वी को ग्रहण कर विराधना करता है, उसके बाद हमेशा कूदना, हिलना, चलना और बार-बार मर्दन करना उसका भक्षण आदि करने से वे जीव अन्य 350 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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