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________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला ने कहा-मैं स्मरण करूँ तब आ जाना। देव वह स्वीकार करके अपने स्थान पर गया। फिर विद्याधरों ने 'यह गुणवान है' ऐसा मानकर अनेक मणि और सुवर्ण के समूह से भरे हुए बड़े विमान में उसे बैठाकर चंपापुरी लाकर अपने भवन में रखा और वहाँ चारुदत्त श्रेष्ठी ने उन्नति की। इस तरह इस जगत में भी दुष्ट और शिष्ट की संगत से वैसा ही फल को देखकर निर्मल गुण से भरे हुए उत्तम बुद्धि वाले वृद्ध की सेवा करने में प्रयत्न करना चाहिए। और धीर पुरुष, वृद्ध प्रकृति वाले तरुण अथवा वृद्ध की नित्य सेवा करते और गुरुकुल वास को नहीं छोड़ने वाले ब्रह्मव्रत को प्राप्त करते हैं। बार-बार स्त्रियों के मुख और गुप्त अंगों को देखने वाले अल्प सत्त्व वाले पुरुषों का हृदय कामरूपी पवन से चलित होता है। क्योंकि स्त्रियों की धीमी चाल, उसके साथ खड़ा रहना, विलास, हास्य, श्रृंगारिका-काम विकार चेष्टा तथा हावभाव द्वारा, सौभाग्य, रूप, लावण्य और श्रेष्ठ आकृति की चेष्टा द्वारा, टेढ़ी-मेढ़ी दृष्टि द्वारा देखना, विशेष आदरपूर्वक हँसना, बोलना, रसपूर्वक क्षण-क्षण बोलने के द्वारा, तथा आनंदपूर्वक क्रीड़ा करने के द्वारा, स्वभाव से ही स्निग्ध विकारी और स्वभाव से ही मनोहर स्त्री को एकांत में मिलने से प्रायःकर पुरुष का मन क्षोभित होता है और फिर अनुक्रम से प्रीति बढ़ने से अनुराग वाला बनता है फिर विश्वास वाला निर्भय और स्नेह के विस्तार वाला लज्जायुक्त भी पुरुष वह क्या-क्या नहीं करता है? अर्थात् सभी अकार्यों को करता है। जैसे कि माता, पिता, मित्र, गुरु, शिष्ट लोग तथा राजा आदि की लज्जा को, अपने गौरव को, राग और परिचय को भी मूल में से त्याग कर देता है। कीर्ति धन का नाश, कुल मर्यादा, प्राप्त हुए धर्म गुणों को, और हाथ, पैर, कान, नाक आदि के नाश को भी वह नहीं गिनता है। इस तरह संसर्ग से मूढ़ मन वाला, मैथुन क्रिया में आसक्त, मर्यादा रहित बना हुआ और भूत भविष्य को भी नहीं गिनता, वह पुरुष ऐसा कौन सा पाप है कि जिसे वह आचरण नहीं करता? स्त्री के संसर्ग से पुरुष के हृदय में स्त्री को स्थान प्राप्त होने से इन्द्रिय जन्य शब्दादि विषय, कषाय, विविध संज्ञा और गारव आदि सब दोष स्वभाव से ही शीघ्र बढ़ते हैं यदि वय से वृद्ध और बहुत ज्ञानवान हो, तथा प्रामाणिक लोकमान्य मुनि एवं तपस्वी हो फिर भी स्त्रियों के संसर्ग से वह अल्पकाल में दोषों को प्राप्त करता है। तो फिर युवान, अल्पज्ञान वाला, अज्ञानी आदि स्वछंदचारी और मूर्ख स्त्री के संसर्ग से मूल में से ही विनाश अर्थात् व्रत से भ्रष्ट होता है उसमें क्या आश्चर्य है? मनुष्य रहित निर्जन गहन जंगल में रहनेवाले भी कुलवालक मुनि ने स्त्री के संसर्ग से महा विडम्बना प्राप्त की थी। जो जहर के समान स्त्री के संसर्ग को सर्वथा त्याग करता है वह जिंदगी तक निश्चल ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है क्योंकि-देखने मात्र से भी वह स्त्री पुरुष को मूर्च्छित करती है। इसलिए समझदार पुरुष को समझना चाहिए की पापी स्त्री के नेत्रों में निश्चय जहर भरा हुआ है। तीव्र जहर, सर्प और सिंह का संसर्ग एक बार ही मारता है जबकि स्त्री का संसर्ग पुरुष को अनंती बार मारता है। इस तरह व्रत रूपी वन के मूल में अग्नितुल्य की संगत का जो हमेशा त्याग करता है. वह सखपर्वक ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है और यश का विस्तार करता है। इसलिए हे क्षपकमुनि! यदि मोह के दोष से किसी समय भी विषय की इच्छा हो तो भी पाँच प्रकार के स्त्री वैराग्य में उपयोग वाला बनना। कीचड़ में उत्पन्न हुआ और जल में बढ़ने वाला कमल जैसे वह कीचड़ और जल से लिप्त नहीं होता है वैसे स्त्री रूपी कीचड़ से जन्मा हुआ और विषय रूपी जल से वृद्धि होने पर भी मुनि उसमें लिप्त नहीं होते हैं। अनेक दोष रूपी हिंसक प्राणियों के समूह वाली, मायारूपी मृग तृष्णा वाली और कुबुद्धि रूपी गाढ़ महान् जंगल वाली स्त्री रूपी अटवी में मुनि मोहित नहीं होता। सर्व प्रकार की स्त्रियों में सदा अप्रमत्त और अपने स्वरूप में दृढ़ विश्वास रखने वाला मुनि चारित्र का मूलभूत और सद्गति का कारण रूप 339 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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