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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा ब्रह्मचर्य को प्राप्त करता है। जो स्त्री के रूप को चिरकाल टकटकी दृष्टि से नहीं देखता है और मध्याह्न के तीक्ष्ण तेज वाले सूर्य को देखने के समान उसी समय दृष्टि को वापस खींच लेता है, वही ब्रह्मचर्य व्रत को पार उतार सकता है। दूसरे मेरे विषय में क्या बोल रहे हैं? मुझे कैसा देख रहे हैं? और मैं कैसा वर्तन करता हूँ? इस तरह जो आत्मा नित्य अनुप्रेक्षा करता है वह दृढ़ ब्रह्मव्रत वाला है। धन्य पुरुष ही मंदहास्यपूर्वक के वचन रूपी तरंगों से व्याप्त और विषय रूपी अगाढ़ जल वाले यौवन रूपी समुद्र को स्त्री रूपी घड़ियाल में फँसे बिना पार उतरते हैं ।।८९४६।। (५) अपरिग्रह व्रत :- बाह्य और अभ्यंतर सर्व परिग्रह को तूं मन, वचन, काया से करना, करवाना और अनुमोदना के द्वारा त्याग कर। इसमें १. मिथ्यात्व, २. पुरुष वेद, ३. स्त्री वेद, ४. नपुंसक वेद, ५ से ११ हास्यादिषट्क और ११ से १४ चार कषाय इस तरह चौदह प्रकार का अभ्यंतर परिग्रह जानना। १. क्षेत्र, २. वास्तु, ३. धन, ४. धान्य, ५. धातु, ६. सोना, ७. चांदी, ८. दास, दासी, ९. पशु, पक्षी तथा शयन आसनादि नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह जानना। छिलके सहित चावल-धान जैसे शुद्ध नहीं हो सकता है, वैसे परिग्रह से युक्त जीव के कर्ममल शुद्ध नहीं हो सकते हैं। जब राग, द्वेष, गारव तथा संज्ञा का उदय होता है, तब लालची जीव परिग्रह को प्राप्त करने की बुद्धि रखता है फिर उसके कारण जीवों को मारता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित धन को एकत्रित करता है। धन के मोह से अत्यंत मूढ़ बनें जीव को संज्ञा, गारव, चुगली, कलह, कठोरता तथा झगड़ा विवाद आदि कौन-कौन से दोष नहीं होते हैं? परिग्रह से मनुष्यों को भय उत्पन्न होता है क्योंकि एलगच्छ नगर में जन्मे हुए दो सगे भाइयों ने धन के लिए परस्पर मारने की बुद्धि हुई थी। धन के लिए चोरों में भी परस्पर अतिभय उत्पन्न हुआ था, इससे मद्य और मांस में विष मिलाकर उनको परस्पर मार दिया था। परिग्रह महाभय है, क्योंकि उत्तम कुंचिक श्रावक ने धन चोरी करने वाला पुत्र था फिर भी आचार्य महाराज को कष्ट दिया। वह इस प्रकार 'मुनिपति राजर्षि' कुंचिक सेठ के घर उसके भंडार के पास चौमासे में रहे, सेठ की जानकारी बिना ही उनके पुत्र गुप्त रूप में धन चोरी कर गये, परंतु सेठ को आचार्यजी के प्रति शंका हुई और उनको कष्ट दिया। धन के लिए ठण्डी, गरमी, प्यास, भूख, वर्षा, दुष्ट शय्या, और अनिष्ट भोजन इत्यादि कष्टों को जीव सहन करता है और अनेक प्रकार के भार को उठाता है। अच्छे कुल में जन्म लेनेवाला भी धन का अर्थी गाता है. नत्य है. दौडता है. कंपायमान होता है. विलाप करता है. अशचि को भी कचलता है. और नीच कर्म भी करता है। ऐसा करने पर भी उनको धन प्राप्ति में संदेह होता है, क्योंकि मंद भाग्यवाला चिरकाल तक भी धन प्राप्त नहीं कर सकता। और यदि किसी तरह धन मिल जाये फिर भी उसे उस धन से तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि लाभ से लोभ बढ़ता है। जैसे ईंधन से अग्नि, और नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे जीव को तीनों लोक मिल जायें, फिर भी तृप्ति नहीं होती है। जैसे हाथ में मांसवाले निर्दोष पक्षी को दूसरे पक्षी उपद्रव करते हैं वैसे निरपराधी धनवान को भी अन्य मारते हैं, वध करते हैं, रोकते हैं और भेदन छेदन करते हैं। धन के लिए जीव माता, पिता, पुत्र और स्त्री में भी विश्वास नहीं करता और उसकी रक्षा करते समग्र रात्री जागृत रहता है। अपना धन जब नाश होता है तब पुरुष अंतर में जलता है, उन्मत्त के समान विलाप करता है, शोक करता है और पुनः धन प्राप्ति करने की उत्सुकता रखता है। स्वयं परिग्रह का ग्रहण, रक्षण, सार संभाल आदि करते व्याकुल मन वाला मर्यादा भ्रष्ट हुआ जीव शुभ ध्यान किस तरह कर सकता है? 340 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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