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परिकर्म द्वार - मन का छट्टा अनुशास्ति द्वार
श्री संवेगरंगशाला है उसके कारण की भी स्पष्ट जानकारी मिली है कि - जीता था तब अर्थीजन होने के कारण हल्का - लघु था, वह अर्थीपन मर जाने के बाद नहीं होता इस कारण से वह भारी बन जाता है। हे मन ! नित्य मेव दुःखों से तूं उद्विग्न रहता है और सुखों को चाहता है, परन्तु तूं ऐसा क्यों नहीं करता कि जिसमें इच्छित सुख मिले। हे हृदय ! पूर्व में तूंने जैसा किया है, वर्तमान में तुझे वैसा ही मिला है इसलिए इसमें हर्ष - खेद मत कर ! सम्यक् परिणाम से समतापूर्वक सहन कर । 'संयोग वियोग वाला, विषय विष के समान परिणाम से दुःखदायी है, काया अनेक रोगों वाली है और रूप स्वरूप से क्षण भंगुर है ।" ऐसा दूसरे को उपदेश देते तेरा वचन जैसे महा स्फूर्तिवाला बनता है, वैसे हे चित्त! तेरे अपने लिए भी ऐसा बने तो क्या प्राप्त न हो अर्थात् सर्वस्व प्राप्त होता है । । १८९९ ।।
हे हृदय ! तेरी पुण्य और पाप रूपी जो मजबूत दो बेड़ियाँ विद्यमान हैं उसे स्वाध्याय रूपी चाबी से खोलकर मुक्ति को प्राप्त कर । । १९०० ।। हे चित्त ! संसार में सुख का तूं जो अनुभव चाहता है वह तृष्णा की शान्ति के लिए तूं मृग जल को पीता है, सत्त्व की शोध के लिए केले की छाल को उखाड़ता है, मक्खन के लिए पानी को मथना, तेल के लिए रेती को पीलना अर्थात् ये क्रिया सब निष्फल हैं वैसे संसार में सुख प्राप्ति की इच्छा भी निष्फल है। जैसे इस संसार में कुछ बना हुआ और कुछ बनते पात्र को अधूरा छोड़कर दूसरे को करने से पूर्व के अधूरे का नाश होता है, वैसे अनेक प्राणि मनुष्य जन्म प्राप्तकर साधना नहीं करते, केवल विविध गर्भादि अवस्थाओं को प्राप्त कर संसार के जन्म मरणादि के दुःखों को ही सहन करते हैं। यह जानकर हे चित्त ! कुछ भी शुभ का चिन्तन कर । हे चित्त ! तूं एक होने पर अनेक वस्तु का चिंतन करने से बहुत्व को प्राप्त करता है - अनेक प्रकार का बनता है पुनः तूं ऐसा बनकर स्वयं दुःखी होता है, इसलिए हे चित्त ! अन्य सब वस्तु की चिन्ता को छोड़कर श्रेष्ठ एक भी किसी वस्तु का चिन्तन कर कि जिससे तूं परम शान्ति प्राप्त करें । हे मन ! मदोन्मत्त हाथी के समान तूं वैसा कर कि - स्वाध्याय के बल से जैसे मेरी संसार रूपी अटवी की मूलभूत कर्मरूपी अटवी टूट जाय और वह टूटते ही भव वन में ताजे पत्ते तुल्य मेरे रागादि सूख जाते ही पंखी तुल्य मेरे कर्म उड़कर कहीं जाते रहे और उसके पुष्पों समान मेरा जन्म जरा मरण सर्वथा नाश हो जाय तथा उसके फल तुल्य मेरे दुःख भी शीघ्र क्षीण हो । हे मन ! यदि तूं दुःखरूपी फलों को देने वाली कर्मरूपी जल के सिंचन से बढ़ती हुई संसार रूपी गहरी लता को ध्यान रूपी अग्नि से जला दे तो वह उत्पन्न नहीं होगी।
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यदि तूं लक्ष्मी से अभिमान नहीं करता है, रागादि अंतरंग शत्रुओं को भी वशीभूत नहीं होता है, स्त्रियों से आकर्षित नहीं होता है, विषयों में लोलुपता नहीं रखता है, सन्तोष को नहीं छोड़ता है, इच्छाओं को आदर नहीं देता है, और पाप पक्ष का विचार नहीं करता है, तो हे चित्त! तुझे ही मेरा नमस्कार, तूं ही मेरे लिए वन्दनीय है। तथा हे मन! तूं आसक्ति के त्याग से राग को, अप्रीति के त्याग से द्वेष को सत् ज्ञान से मोह को, क्षमा से क्रोध को मृदुता प्रकट करके मान को, सरलता से माया को, और सन्तोष गुण से लोभ को जीते और तूं नित्य बलपूर्वक भी इन्द्रियों के समूह को सन्तोष से जीतता है, जीव के साथ प्रीति करने के लिए अप्रीति को खत्म करता है, असंयम में अरति और संयम में रति करता है, संसार से भय प्राप्त करता है, पाप की घृणा करता है, वस्तु स्वरूप का विचारकर हर्ष शोकादि नहीं करें, वचन का उच्चारण करने में नित्य सत्य का विचार करें, तथा धर्म गुणों की यथाशक्ति सम्यग् आसक्ति करें, काल के अनुरूप समय अनुसार सुंदर क्रिया में तत्पर उत्तम साधुओं का सत्कार करें, दीन-दुःखियों के प्रति करुणा करें, और यदि पापियों की उपेक्षा करें तो हे मन ! अन्य निष्फल क्रियाओं को करने का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। तेरी कृपा से मुझे मुक्ति हथेली में ही है। हे मन ! जैसे निःश्वास
1. संजोगा सविओगा विसं व विसया वि परिणईविरसा । काओ य बहुअवाओ, रूवं खणभंगुरसरूवं ||१८६८ ||
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