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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा राग को स्वीकार कर । हे चित्त ! यदि तुझे इस सद्धर्म में थोड़ा भी राग होता तो इतने दीर्घकाल तक महादुःखों की यह जाल तुझे नहीं होती, क्या तूंने नहीं सुना । एग दिवसं पि जीवो, पव्वज्जमुवागओ अन्नन्नमणो । जइ वि न पावइ मोक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ । । १९६९ ।। अनन्य मन वाला (एकाग्र चित्त वाला) जीव यदि एक दिन भी दीक्षा स्वीकार करे तो वह मोक्ष को प्राप्त न करे तो भी वैमानिक देव तो अवश्य बन जाता ही है ।।१९६९ ।। ज्ञान का सम्यग् परिणाम अथवा एक दिन आदि भी बहुत समय कह दिया, क्योंकि एक मुहूर्त्त मात्र होने से इष्ट फल की प्राप्ति होती है, यहाँ शास्त्र में कहा है कि जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाई वासकोडीहिं । तं नाणी तिर्हि गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेण ।। १९७१ ।। अज्ञानी जितने कर्मों को अनेक करोड़ों वर्षों में खत्म करते हैं उतने कर्मों को तीन गुप्ति वाले ज्ञानी पुरुष एक उच्छ्वास (श्वास) मात्र काल में खत्म करते हैं ।। १९७१ । ।" यदि ऐसा नहीं होता तो हे मन ! सम्यग् ज्ञान के परिणाम रूप गुणरहित पूर्व में किसी गुणी की साधना बिना ही श्री मरुदेवा उसी क्षण में सिद्ध हुए हैं, वह कैसे होते? हे मन ! तूं तो किसी समय राग में रंगा हुआ तो किसी समय द्वेष से कलुषित हुआ, किसी समय मोह में मूढ़ बना तो किसी वक्त क्रोधाग्नि से जला, किसी समय मान से अक्कड़बना, तो किसी समय माया से अति व्याप्त हुआ, किसी दिन बड़े लोभ समुद्र में सर्वांग डूबा हुआ, तो किसी समय वैर मत्सर उद्वेग-पीड़ा, भय और आर्त्त - रौद्र ध्यान के आधीन होता है। किसी समय द्रव्य, क्षेत्र आदि की चिन्ता के भार से युक्त, इस तरह नित्यमेव तीव्र वायु से उड़ते ध्वजापट के समान तूं व्याकुल बना कदापि परमार्थ में थोड़ी भी स्थिरता को प्राप्त नहीं करता । इत्यादि हे चित्त ! तुझे कितनी शिक्षा दी है ? तूं स्वयंमेव हिताहित के विभाग का विचार कर और उसका निश्चय कर, उसके बाद नित्य कुशलता - (शुभ) में प्रवृत्ति और कुशल मार्ग में रहनेवालों का सत्कार, सन्मान कर । अकुशल प्रवृत्ति और अकुशल वस्तु का त्याग कर ! शुभाशुभ में राग-द्वेष त्याग कर, माध्यस्थ भाव का सेवन कर। इस प्रकार अकुशल का त्याग और कुशल मार्ग में प्रवृत्ति रूप मुख्य कारण द्वारा ( उस पर अमल करने से ) हे मन ! तूं समाधि रूप परम कार्य को सिद्ध करेगा । इस प्रकार यदि भावपूर्वक नित्य प्रति समय मन को समझाया जाय तो एक साथ तूं माया, क्रोध और लोभ को जीत लेगा इसमें क्या आश्चर्य है? अन्यथा अनन्य विविध कवि कल्परूप कल्पनाओं में आसक्त चित्त से पीड़ित, हित को भी अहित, स्वजन को भी पराया, मित्र को भी शत्रु और सत्य भी गलत मानकर निरंकुश हाथी जिसे रोकना दुःशक्य है ऐसा मनुष्य वसुदत्त के समान, कौन-कौन से पाप स्थान को नहीं करता है? ।।१९८२ ।। वह इस प्रकार है : मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा उज्जैन नगर में सूरतेज नाम का राजा था। उसने सोमप्रभ नाम का ब्राह्मण पुरोहित रखा था। वह सभी शास्त्रों के रहस्यों का जानकार, सर्व प्रकार के दर्शनों का जानकार, सद्गुणी होने से गुण वालों को और राजा को अत्यन्त प्रिय था। उसके मर जाने के बाद उसके स्थान पर स्थापन करने के लिए स्वजनों ने उसके पुत्र वसुदेव राजा को दिखाया, परन्तु वह छोटा और पढ़ा हुआ नहीं होने से राजा ने उसका निषेध किया और उसके स्थान पर अन्य ब्राह्मण को स्थापन किया। फिर अपना पराभव होता जानकर अत्यन्त खेद से संताप करते वह वसुदत्त 88 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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