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________________ परिकर्म द्वार-मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला पढ़ने के लिए घर से निकल गया। 'पाटलीपुत्र नगर विविध विद्या के विद्वानों का श्रेष्ठ विद्या क्षेत्र है।' ऐसा लोगों के मुख से सुनकर वह वहाँ गया और कालक्रम से सर्व विद्याओं को पढ़कर फिर इच्छित कार्य की सिद्धि वाला वह अपने नगर में वापिस आया, उसकी विद्या से राजा प्रसन्न हुआ और पिता की आजीविका उसे दी, वह अपने विद्या के बल से राजा और नगर के सर्व लोगों का माननीय बना। राजा के सन्मान से, ऐश्वर्य से और श्रुतमद से जगत को भी तृणवत् मानता वह वहाँ काल व्यतीत करने लगा। इस ऐश्वर्य आदि एक के बल से भी अधीर पुरुषों का मन चंचल बनता है तो कुल, बल, विद्या आदि सर्व का समूह एकत्रित हो जाये तो उससे क्या नहीं होता है? प्रलयकाल के समुद्र के तरंगों के समूह को रोकने में पाल आदि बांधकर सफलता प्राप्त कर सकते हैं परन्तु ऐश्वर्य आदि के महामद के आधीन बनें मन को थोड़ा भी रोकना अशक्य है। इस तरह उन्मत्त मन वाले उसको उसके मित्रों ने कतहल से एक रात्री में नट का नाटक देखने को कहा-हे मित्र! चलो, हम जाकर क्षण भर नट नाटक देखें, क्योंकि देखने योग्य देखने से आँखों का होना सफल होता है, उनकी इच्छानुसार वह वहाँ गया और एक क्षण बैठा। उस समय वहाँ (स्टेज पर) एक कोई युवती.किसी भाट के साथ इस तरह बोलती हुई सुनायी दी-हे सुभग! तेरे दर्शनरूपी अमृत मिलने से आज कपट पण्डित और घर में बन्द कर रखने वाले मेरे पति से मुझे मुक्ति मिली है। हे नाटक के प्रथम पात्र। तेरा जीवन दीर्घ अखण्ड बनें क्योंकि, तूने क्रोध के समुद्र समान मेरे पति को यहाँ व्यग्र किया है, इसलिए हे सुभग! आओ, जब तक यह कूट पण्डित यहाँ समय व्यतीत करता है तब तक क्षणभर क्रीड़ा करके अपने-अपने घर जायें। इस तरह उनकी स्नेहयुक्त वाणी सुनकर गलत विकल्प करने रूप कथन से प्रेरित उस वसुदत्त ने विचार किया कि ।।२००० ।। -मैं मानता हूँ कि निश्चय ही यह मेरी पत्नी है, यह पापिनी परपुरुष के संग क्रीड़ा करती है और मुझे उद्देश्य से कुट पण्डित कहती है, पहले भी मैंने उसके लक्षणों से दुराचारिणी मानी थी और अब प्रत्यक्ष ही देखा, इससे इसको शिक्षा देनी चाहिए। ऐसा विचारकर वह वसुदत्त उसको मारने के लिए चला। इतने में तो स्वच्छन्द आचरण करने वाली वह युवती कहीं जाती रही। फिर 'मैं मानता हूँ कि-मुझे आते देखकर वह पापिनी शीघ्र घर गयी होगी' ऐसा अपनी तुच्छ बुद्धि से विचारकर वहाँ से वह शीघ्र घर की ओर चला। फिर प्रबल क्रोध के वश बना जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा, तब अपनी बहन को शरीर चिन्ता से निवृत होकर घर में प्रवेश करते देखा, इससे 'यह मेरी पत्नी है' ऐसा मानकर उसने कहा-अरे पापिनी! दुराचारिणी होकर भी मेरे घर में क्यों प्रवेश करती है? उस भाट के सामने मुझे 'कपट पण्डित' ऐसा मुलजिम बनाकर और उसके साथ सहर्ष क्रीड़ा करके तूं आयी है। ऐसा बोलते उसने 'हा! हा! ऐसा क्यों बोलते हो, यह कौन है? मैंने क्या अकार्य किया?' इस प्रकार बड़ी आवाज से बोलती बहन को भी अत्यन्त क्रोध के आवेश में उसको नहीं जानने से लकड़ी और मुट्ठी से निष्ठुरतापूर्वक उसके मर्मस्थानों पर इस तरह प्रहार किया कि जिससे वह मर गयी। उसके बाद ही मित्र वर्ग ने आकर उसे रोका, इससे अधिक क्रोधायमान होकर उसने कहा कि-हे पापियों! तुम्हारे ही प्रपंच से निश्चय रूप से मेरी स्त्री ऐसा अकार्य करती है और इसी कारण से ही तुम मुझे रोकते हो, निश्चय इस कारण से ही इसके पाप कार्य में विघ्न दूर करना तुम नहीं चाहते परन्तु मुझे नाटक दिखाने के लिए भी ले गये; अथवा कृत्रिम मैत्री से युक्त कपटियों को कोई भी कार्य अकरणीय नहीं है इसलिए हे दुराचारियों! मेरी दृष्टि के सामने से दूर हट जाओ। इस तरह गलत कुविकल्प से पीड़ित मन वाले वसुदत्त ने निश्चय ही निर्दोष होते हुए भी इस तरह उनका तिरस्कार किया, इससे वे अपने घर चले गये। यह कोलाहल सुनकर उसकी स्त्री घर में से बाहर आकर और स्थिति देखकर बोलने लगी कि-'हा! हा! निर्दय! निर्लज्ज! अनार्य! अपनी बहन को क्यों मारता है? जो ऐसा पाप तो चण्डाल भी नहीं करता 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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