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________________ समाधि लाभ द्वार-सारणा एवं कवच नानक तीसरा, चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला होने पर भी भाव बल का आलंबनकर धीर, पुरुषसिंह वह अखंड विधि से काल करें। वास्तव में यदि निश्चय से नजदीक में कल्याण होने वाला हो तभी निश्चय कोई महासात्त्विक पुरुष इस प्रकार कथनानुसार प्राण का त्याग करता है। क्योंकि ऐसा पंडितमरण अति दुर्लभ है। ____ इस प्रकार पाप रूपी अग्नि को शांत करने के लिए मेघ समान सद्गति को प्राप्त करने में उत्तम सरल मार्ग समान, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में दूसरा प्रतिपत्ति द्वार कहा है। अब यदि प्रतिपत्ति वाला भी किसी कारण किसी प्रकार से उस आराधना में क्षोभित हो तो उसे प्रशम करने के लिए अब सारणा द्वार कहते हैं ।।९४६८।। सारणा नामक तीसरा द्वार : संथारे को स्वीकार करने पर भी, आराधना में उद्यमशील दृढ़ धीरज और दृढ़ संघयण बल वाला भी अति दुष्कर समाधि की अभिलाषा रखनेवाला स्वभाव से ही संसार प्रति उद्वेग को धारण करने वाला और अत्यंत उत्तरोत्तर बढ़ते शुभाशय वाला होने पर भी क्षपक महामुनि को किसी कारण से अनेक जन्मों के कर्म बंध के दोष से वात आदि धातु के क्षोभ से अथवा बैठना, पासा बदलना आदि परिश्रम से साथल, पेट, मस्तक, हाथ, कान, मुख, दांत, नेत्र, पीठ आदि किसी भी अंग में ध्यान के अंदर विघ्नकारी वेदना प्रकट हो तो उसी समय गुणरूपी मणि से भरे हुए क्षपक मुनि वाहन के समान भागे अर्थात् दुर्ध्यान करे और इस तरह परिणाम नष्ट हो जाने से वह भयंकर संसार समुद्र में चिरकाल भ्रमण करेगा, उस समय पर उसे भग्न परिणामी जानकर भी निर्यामक केवल नाम ही धारण कर यदि उसकी उपेक्षा करें, तो इससे दूसरा अधर्मी-पापी कौन है? यदि मूढ़ इस तरह क्षपक की उपेक्षा करें, उस निर्यामक साधु के जो गुण पूर्व में इस ग्रंथ में वर्णन किये है, उस गुणों से वह भ्रष्ट हुआ है। अतः औषध के जानकार, साधुओं को स्वयं अथवा वैद्य के आदेशानुसार उस क्षपक को आरोग्यजनक औषध करना चाहिए। वेदना का मूल कारण वात, पित्त या कफ जो भी हो उसे जानकर प्रासुक द्रव्यों से शीघ्र उपयोग पूर्वक वेदना की शांति करें। मूत्राशय को सेक आदि से गरमी देकर अथवा विलेपन आदि शीत प्रयोग से तथा मसलकर, शरीर दबाकर आदि से क्षपक को स्वस्थ करें। ऐसा करने पर भी यदि अशुभ कर्म के उदय से उसकी वेदना शान्त न हो अथवा उसे तृषा आदि परीषहों का उदय हो तो वेदना से पराभव होते अथवा परीषह आदि से पीड़ित मुरझाया हुआ क्षपक यदि वह बोले, अथवा बकवास करें तो अति मुरझाते उसे निर्यामक आचार्य आगम के अनुसार इस तरह समझाये कि जैसे संवेग से पुनः सम्यक् चैतन्य वाला बनें। उसे पूछना कि तूं कौन है? नाम क्या है? कहाँ रहता है? अब कौन-सा समय है? तूं क्या करता है? कौन-सी अवस्था में चल रहा है? अथवा मैं कौन हूँ? ऐसा विचार कर। इस प्रकार साधर्मिक वात्सल्य अति लाभदायक है, ऐसा मानता निर्यामक आचार्य स्वयं इस प्रकार क्षपक को स्मरण करवाये चेतनमय बनावें। इस तरह कुमति के अंधकार को नाश करने में सूर्य के प्रकाश समान और सदगति में जाने का निर्विघ्न सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथे समाधि द्वार में यह तीसरा सारणा द्वार कहा। अब इस तरह जागृत करने पर भी क्षपक जिसके बिना धैर्य को धारण कर नहीं सके उस धर्मोपदेश स्वरूप कवच द्वार को कहते हैं ।।९४८६।। कवच नामक चौथा द्वार : निर्यामणा कराने में एक निपुण और इंगित आकार में कुशल निर्यामक गुरु दुःसह परीषहों से पराभूत और इससे मर्यादा छोड़ने के मनवाले क्षपक की विपरीत चेष्टा को जानकर निजकार्यों को छोड़कर स्नेह भरी मधुर 393 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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