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'श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-प्रतिपति नामक दूसरा द्वार शब्दादि विषयों को सुनकर, देखकर, खाकर, सूंघकर, और स्पर्शकर भी प्रत्येक वस्तु के स्वभाव के ज्ञान बल से अरति, रति को नहीं करने से शरद ऋतु की नदी के निर्मल जल के समान अति निर्मल चित्त वाले, महासत्त्वशाली गरुदेव और परमात्मा को नमस्कार कर उचित आसन पर बैठा हआ. उस समय में 'यह राधावेध का समय है' ऐसा मन में विचार कर, सारे कर्म रूपी वृक्ष वन को जलाने में विशेष समर्थ दावानल के प्रादुर्भाव समान धर्म ध्यान का सम्यक् प्रकार से ध्यान करें, अथवा वहाँ उस समय श्री जिनेश्वर भगवान का ध्यान करें। जैसे
किः
__ पूर्ण चंद्र के समान मुखवाले, उपमा से अतिक्रांत अर्थात् अनुपमेय रूप लावण्य वाले, परमानंद के कारण भूत, अतिशयों के समुदाय रूप चक्र, अंकुश, वज्र, ध्वज, मच्छ आदि संपूर्ण निर्दोष लक्षणों से युक्त शरीर वाले, सर्वोत्तम गुणों से शोभते, सर्वोत्तम पुण्य के समूह रूप, शरद के चंद्र किरणों के समान, उज्ज्वल तीन छत्र
और अशोक वृक्ष के नीचे बिराजमान, सिंहासन पर बैठे, दुंदुभि की गाढ़ गर्जना के समान अर्थात् गर्जना युक्त गंभीर आवाज वाले, देव असुर सहित मनुष्य की पर्षदा में शुद्ध धर्म की प्ररूपणा (उपदेश देते) करते जगत के सर्व जीवों के प्रति वत्सल, अचिंत्यतम शक्ति की महिमा वाले, प्राणी मात्र के उपकार से पवित्र समस्त कल्याण के निश्चित कारण भूत, अन्य मतवाले को भी शिव, बुद्ध, ब्रह्मा आदि नाम से ध्यान करने योग्य केवल ज्ञान से सर्व ज्ञेय भावों को एक साथ में यथार्थ रूप में जानते और देखते मूर्तिमान देहधारी धर्म और जगत के प्रकाशक प्रदीप के समान श्री जिनेश्वर प्रभु का ध्यान कर। अथवा उसी जिनेश्वर भगवान के कथन का तीन जगत में मान्य
और दःख से तपे हए प्राणियों को अमत की वर्षा समान श्रत ज्ञान का ध्यान कर। यदि अशक्ति अथवा बिमारी के कारण वह इतना बोल न सके तो 'अ-सि-आ-उ-सा' इन पाँच अक्षरों का मन में ध्यान करें ।।९४५०।। पाँच परमेष्ठिओं में से एक-एक भी परमेष्ठी का ध्यान पाप नाशक है तो एक साथ में पाँचों परमेष्ठी समग्र पापों का उपशामक कैसे न हो? अवश्यमेव समग्र पाप नाश होते हैं। ये पाँच परमेष्ठी मेरे मन में क्षण भर के लिए स्थान करो, स्थिर हो जाओ जिससे मैं अपना कार्य सिद्ध करूँ। इस प्रकार उस समय प्रार्थना करता हूँ। इन परमेष्ठिओं को किया हुआ नमस्कार संसार समुद्र तरने के लिए नौका है, सद्गति के मार्ग में श्रेष्ठ रथ है, दुर्गति को रोकने वाला है, स्वर्ग में जाने का विमान है और मोक्ष महल की सीढ़ी है, परलोक की मुसाफिरी में पाथेय है, कल्याण सुख की लता का कंद है, दुःखनाशक है और सुखकारक है। अतः अवश्यमेव मेरे प्राण पंच परमेष्ठि के नमस्कार के साथ जायें, जिससे संसार में उत्पन्न होने वाले दुःखों को जलांजलि दूँ। इस प्रकार बुद्धिमान यदि हमेशा पंच नमस्कार के प्राणिधान में तत्पर रहता है तो अंतिम समय में उसका कहना ही क्या? अथवा पास में रहे दूसरों द्वारा बोलते इस नमस्कार मंत्र को बहुमान पूर्वक एकाग्र मन से उसे धारण करें। और निर्यामक साधु सुनावें तो वह चंदा विज्जापयन्ना, आराधना पयन्ना आदि संवेग जनक ग्रंथों को हृदय में सम्यग् धारण करें। यदि वायु आदि से आराधक को बोलना बंद हो जाये अथवा अत्यंत पीड़ा हो जाने से बोलने में अशक्य हो तो अंगुलि आदि से संज्ञा करें।
निर्यामण कराने में तत्पर वह साधु भी अनशन करने वाले के नजदीक से भी अति नजदीक आकर कान को सुखकारी शब्दों से जब तक अंगोपांग आदि में गरमी दिखे तब तक अपना परिश्रम न गिनता हुआ मन से एकाग्र बनकर अति गंभीर आवाज करते संवेग भाव को प्रकट कराने वाले ग्रंथों को अथवा अस्खलित पंच नमस्कार मंत्र को लगातार सुनाता रहें। और भूखा जैसे इष्ट भोजन का, अति तृषातुर, स्वादिष्ट शीतल जल, और रोगी परम औषध का बहुमान करता है वैसे क्षपक उस श्रवण का बहुमान करता है। इस प्रकार शरीर बल क्षीण
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