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समाधि लाभ द्वार-ध्यान नामक छट्ठा द्वार .
श्री संवेगरंगशाला उत्साह वाला, वैराग्यजनक ग्रंथों की वाचना रूप युद्ध के बाजों की ध्वनी से हर्षित हुआ, संवेग प्रशम-निर्वेद आदि दिव्य शस्त्रों के प्रभाव से आठ मद स्थान रूप निरंकुश सुभटों की श्रेणी को भगाकर, दुष्ट आक्रमण करते दुर्जय हास्यादि छह निरंकुश हाथियों के समूह को बिखेरते, सर्वत्र भ्रमण करते इन्द्रियों रूपी घोड़ों के समूह को रोकते, अति बलवान् भी दुःसह परीषह रूपी पैदल सैन्य को हराते और तीन जगत से भी दुर्जय महान् मोह राज का नाश करते और इस प्रकार शत्रु सेना को जीतने से प्राप्त निष्पाप जय रूपी यश पताका वाले और सर्वत्र राग रहित क्षपक सर्व विषय में समभाव को प्राप्त करता है। वह इस प्रकार :
समता का स्वरूप :- समस्त द्रव्य के पयार्यो की रचनाओं में नित्य ममता रूपी दोषों का त्यागी, मोह और द्वेष को विशेषतया नमाने वाला क्षपक सर्वत्र समता को प्राप्त करता है। इष्ट पदार्थों के संयोग, वियोग में, अथवा अनिष्टों के संयोग वियोग में रति, अरति की उत्सुकता, हर्ष और दीनता को छोड़ता है। मित्र ज्ञातिजन, शिष्य साधर्मिकों में अथवा कुल में भी पूर्व में उत्पन्न हुआ उस राग द्वेष का त्याग करे। और क्षपक देव और
अभिलाषा न करे क्योंकि विषयाभिलाषा को विराधना का मार्ग कहा है। राग द्वेष रहित आत्मा वह क्षपक, इष्ट और अनिष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में तथा इस लोक परलोक में, या जीवन मरण में और मान या अपमान में सर्वत्र समभाव वाला बनें। क्योंकि राग द्वेष क्षपक को समाधि मरण का विराधक है। इस प्रकार से समस्त पदार्थों में समता को प्राप्तकर विशुद्ध क्षपक आत्मा मैत्री, करुणा, प्रमोद और उपेक्षा को धारण करे। उसमें मैत्री समस्त जीव राशि में, करुणा दुःखी जीवों पर, प्रमोद अधिक गुणवान जीवों में और उपेक्षा अविनीत जीवों में करे। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य और समाधि योग को त्रिविध से प्राप्त कर ऊपर के सर्व क्रम को सिद्ध करें।
इस प्रकार कुनय रूपी हिरणों की जाल समान, सद्गति में जाने के लिए सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में समता नाम का पाँचवां अंतर द्वार कहा है। अब समता में लीन भी क्षपक मुनि को अशुभ ध्यान को छोड़कर सम्यग् ध्यान में प्रयत्न करना चाहिए, अतः ध्यान द्वार को कहते हैं ।।९६२८।। ध्यान नामक छट्ठा द्वार :
राग द्वेष से रहित जितेन्द्रिय, निर्भय, कषायों का विजेता और अरति-रति आदि मोह का नाशक संसार रूप वृक्ष के मूल को जलाने वाला, भव भ्रमण से डरा हुआ, क्षपक मुनि निपुण बुद्धि से दुःख का महाभंडार सदृश आर्त्तध्यान और रौद्र ध्यान को शास्त्र द्वारा जानकर त्याग करें और क्लेश का नाश करने वाला चार प्रकार के धर्म ध्यान तथा चार प्रकार के शुक्ल ध्यान को शुभ ध्यान जानकर ध्यान करें। परीषहों से पीड़ित भी आर्त, रौद्र ध्यान का ध्यान न करें, क्योंकि ये दुष्ट ध्यान सुंदर एकाग्रता से विशुद्ध आत्मा का भी नाश करते हैं।
चार ध्यान का स्वरूप :- श्री जिनेश्वर भगवान ने १-अनिष्ट का संयोग, २-इष्ट का वियोग, ३-व्याधि जन्य पीड़ा, और ४-परलोक की लक्ष्मी के अभिलाषा से आध्यान (आर्त्त-दुःखी होने का ध्यान) चार प्रकार का कहा है। और तीव्र कषाय रूपी भयंकर १-हिंसानुबंधि, २-मृषानुबंधि, ३-चौर्यानुबंधि और ४-धनादि संरक्षण के परिणाम। इस तरह रौद्र ध्यान को भी चार प्रकार का कहा है। आर्त ध्यान विषयों के अनुराग वाला होता है, रौद्र ध्यान हिंसादि का अनुराग वाला होता है, धर्म ध्यान धर्म के अनुराग वाला और शुक्ल ध्यान राग रहित होता है। चार प्रकार के आर्त ध्यान और चार प्रकार के रौद्र ध्यान में जो भेद हैं उन सबकों अनशन में रहे क्षपक साधु अच्छी तरह जानता है। उसके बाद ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य रूपी चार भावनाओं से युक्त चित्तवाला
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