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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-समता नानक पाँचवा द्वार पर, पुण्य और कल्याण कारक महोत्सव नहीं किया, विषयों के विष से मूर्च्छित और मोह रूपी अंधकार से अंध बनकर मैंने श्री वीतराग देवों का वचन अमृत नहीं पीया, हाय! देव जन्म को निष्फल गंवा दिया। इस प्रकार च्यवन समय में देव के वैभव रूपी लक्ष्मी को याद करके हृदय चुराता हो, जलता हो, कंपायमान होता हो, पीलता हो, अथवा चीरता हो, टकराता हो, या तड़-तड़ टूटता हो इस प्रकार देव विमान के एक विभाग में से दूसरे विभाग में, एक वन से दूसरे वन में, एक शयन में से दूसरे शयन में लेटता है, परंतु तपे हुए शिला तल के ऊपर उछलते मच्छर के समान किसी तरह शांति नहीं। हा! पुनः देवियों के साथ में उस भ्रमण को, उस क्रीड़ा को, उस हास्य को और उसके साथ निवास को अब मैं कब देखूगा? इस प्रकार बड़बड़ाते प्राणों को छोड़ता है। ऐसे च्यवन के समय भय से काँपते देवों की विषम दशा को जानते धीर पुरुष के हृदय में धर्म बिना अन्य क्या स्थिर होता है? इस प्रकार पराधीनता से चार गति रूप इस संसार रूपी जंगल में अनंत दुःख को सहन करके हे क्षपक! अब उससे अनतवाँ भाग जितना इस अनशन के दुःख को स्वाधीनता से प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् सहन कर। और तुझे संसार में अनंतीबार ऐसी तृषा प्रकट हुई थी कि उसको शांत करने के लिए सारी नदी और समुद्र भी समर्थ नहीं हैं। संसार में अनंत बार ऐसी भूख तुझे प्रकट हुई थी कि जिसे शांत करने के लिए समग्र पुद्गल समूह भी शक्तिमान नहीं है। यदि तूंने पराधीनता से उस समय ऐसी प्यास और भूख को सहन की थी अब तो 'धर्म है' ऐसा मानकर स्वाधीनता से तं इस पीडा को क्यों नहीं सहन करता है? धर्म श्रवण रूप जल से. हित शिक्षा रूपी भोजन से और ध्यान रूपी औषध से सदा सहायक युक्त तुझे कठोर भी वेदना को सहन करना योग्य है। और श्री अरिहंत, सिद्ध और केवली के प्रत्यक्ष सर्व संघ के साक्षी पूर्वक नियम किया था, उसका भंग करने के पूर्व मरना अच्छा है ।।९६००।। यदि उस । यदि उस समय तंने श्री अरिहंतादि को मान्य किया हो तो हे क्षपकमनि! उसके साक्षी से पच्चक्खाण किया था उसे तोड़ना योग्य नहीं है। जैसे चाहकर (इच्छा पूर्वक) राजा का अपमान करने वाला मनुष्य महादोष का धारक बनता है वह अपराधी माना जाता है वैसे श्री जिनेश्वरादि की आशातना करने वाला भी महादोष का धारण करनेवाला बनता है। नियम किये बिना मरनेवाला ऐसे दोषों को प्राप्त नहीं करता है। नियम करके उसी का ही भंग करने से अबोधि बीज रूप दोष को प्राप्त करता है। तीन लोक में सारभूत इस संलेखना के परिश्रम और दुष्कर साधुत्व को प्राप्त कर अल्प सुख के लिए नाश मत कर। धीरपुरुषों से कथित और सत्पुरुषों ने आचरण किये हुए इस संथारे को स्वीकारकर बाह्य पीड़ा से निरपेक्ष धन्य पुरुष संथारे में ही मरते हैं। पूर्व में संक्लेश को प्राप्त करने पर भी उसे इस तरह समझाकर पुनः उत्साही बनाये, और उस दुःख को पर देह का दुःख मानें। ऐसा मानकर और महाक्षपक का उत्सर्ग मार्ग रूप (कवच) रक्षण होता है। आगाढ़ कारण से तो अपवाद रूप रक्षण भी करना योग्य है। इस प्रकार गुणमणि को प्रकट करने के लिए रोहणाचल की भूमि समान और सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा मूल समाधि लाभ द्वार के अंदर कवच (रक्षण) नामक चौथा अंतर द्वार कहा, अब परोपकार मैं उद्यमशील निर्यामक गुरु की वाणी से अनशन के रक्षण को करते क्षपक जो आराधना करता है उसे समता द्वार से करने का कहा है ।।९६९०।। समता नामक पाँचवा द्वार : अति मजबूत कवच वाला बख्तरधारी महासुभट के समान, निज प्रतिज्ञा रूपी हाथी ऊपर चढ़कर आराधना रूपी रण मैदान के सन्मुख आया हुआ, पास में प्रशंसा करते साधु रूपी मंगल पाठकों द्वारा प्रकट 398 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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