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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- अर्ह नामक अंतर द्वार (पंडित) मरण द्वार, (१३) श्रेणि द्वार, (१४) भावना द्वार और (१५) संलेखना द्वार। उनका वर्णन क्रमशः कहते हैं (१) अर्ह द्वार : - अर्ह अर्थात् योग्य । यहाँ आराधना करने में योग्य समझना । इसमें सामंत, मन्त्री, सार्थवाह, श्रेष्ठी या कौटुम्बिक आदि अथवा राजा, स्वामी, सेनापति, कुमार आदि कोई भी अथवा उस राजादि का अन्यतर कोई भी अविरुद्धकारी कार्य तथा उनके विरोधियों के संसर्ग का वह त्यागी होता है और जो आराधक साधुओं को चिन्तामणि तुल्य समझकर उनका सन्मान करता है, ऐसे दृढ़ अनुरागी उन साधुओं की सेवा करने के लिए अत्यर्थ प्रार्थना करता है और आराधना के योग्य अन्य आत्माओं के प्रति भी वह हमेशा वात्सल्य करता है और प्रमादी जीवों को धर्म आराधना की दुर्लभता है ऐसा मानता है और मृत्यु इष्ट भाव में विघ्नरूप है ऐसा नित्य विचार करे और उसे रोकने का साधन आराधना ही है ऐसा चिन्तन करे। हमेशा उद्यमशील उत्साहपूर्वक श्री अरिहंत भगवान की पूजा सत्कार करे और गुणरूपी मणि के टोकरी स्वरूप उनके गुणों से गुरुत्व का विचार करे। प्रवचन की प्रशंसा में रक्त रहे, धर्म निन्दा से रुक जाय, और गुण से महान् गुरु की भक्ति में हमेशा शक्ति अनुसार तैयार रहे। सुन्दर मन वाले मुनियों को अच्छी तरह से वंदन करे, अपने दुश्चरित्र की अच्छी तरह निन्दा करे, गुण से सुस्थिर आत्माओं में राग करे, सदा शील और सत्य के पालन करने में तैयार रहे। कुसंग का त्याग करे, सदाचारियों का संसर्ग करे, फिर भी उनके दोषों को नहीं देखे। हमेशा परगुणों को ग्रहण करे, प्रमादरूपी दुष्ट पिशाच का नाश करे, इन्द्रियों रूपी सिंहों को वश में करे, और अत्यन्त दुष्ट प्रवृत्ति वाला, दुराचारी मनरूपी बंदर का ताड़न करे, ज्ञान को सुने, ज्ञान को स्वीकार करे, ज्ञानपूर्वक कार्य करे, अधिकज्ञानी के प्रति राग करे, ज्ञानदान में बार-बार तैयार रहे। अकुशल नियम के क्षयोपशम वाला और कुशल के अनुबन्ध वाला, गुणों की सत्तावाला गुणी आत्मा ही आराधना के योग्य है। कुगति पन्थ में सहायक अपने कषायों को किसी भी तरह से जीतकर प्रशान्त मन वाला, जो दूसरों के कषायों को भी प्रशान्त करता है, वह आराधना के योग्य जानना। क्योंकि उपशम भाव को प्राप्त नहीं करने वाला, ऐसा कषाय वाला भी अन्य के कषायों के उपशान्त करने के शुभभाव से स्वयं सम्यग् उपाय कर आराधना की योग्यता को प्राप्त कर सकता है। अतः आराधना करने वाले को कषाय रूपी शल्य का उद्धार करना चाहिए । आराधना करने के पूर्व प्रथम से ही स्वयं को शल्य रहित करें तो वह भी आराधना के योग्य जानना । ऋण देने के कारण जो अन्य लेनदार को मान्य न हो वह और लेनदार मान्य हो वह भी, यदि किसी भी रूप में व्यापारि - गण की अनुमति हो तो वह आराधना के लिए योग्य है। अन्यथा आराधना में रहे हुए और संघ उसे अमान्य करता हो उसके प्रति लेनदार को प्रद्वेष होने से प्रवचन की मलिनता होती है। और जिसने सन्मान और उपदेश देकर अपने-अपने परिवार को आजीविकादि में स्थिर किया हो, ऐसे परिवार को छोड़ने वाला निश्चय ही आराधना करने योग्य है। अन्यथा लोक में निन्दा होती है। और आजीविका के प्रबन्ध में सर्वथा सामर्थ्य के अभाव में भी विशिष्ट धार्मिक लोगों की यदि अनुमति हो अर्थात् उसके परिवार वाले यह कहे हम अपना किसी तरह गुजर-बसर करेंगे आप चारित्र ग्रहण करें इस प्रकार छोड़ने वाला आराधक समझना, अतः इस कारण जैसे-तैसे परिवार को छोड़ने वाला भी आराधना के योग्य जानना । तथा प्रकृति से जो विनीत हो, प्रकृति से ही साहसिक हो, प्रकृति से अत्यन्त कृतज्ञ और संसारवास निर्गुण है, उस कारण से संसारवास से वैरागी बना हो, स्वभाव से ही अल्प हास्य वाला हो, स्वभाव से ही अदीन और प्रकृति से ही स्वीकार किये हुए कार्य को पूर्ण करने में शूरवीर हो, तथा जिसने 42 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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