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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-प्रवर्तिनी को अनुशास्ति अंग चेष्टा आदि जलचरों से व्याप्त काम के मद रूपी मगरमच्छ वाले, और यौवन रूपी महासमुद्र को पार किया हैं। जो स्त्रियाँ पुरुष को बंधन के लिए पाश समान अथवा ठगने के लिए पाश सदृश, छेदन करने के लिए तलवार समान, दुःखी करने के लिए शल्य तुल्य, मूढ़ता करने में इन्द्रजाल सदृश, हृदय को चीरने में कैंची के समान, भेदन करने में शूली समान, दिखने में कीचड़ समान और मरने के लिए मरण तुल्य है अथवा श्लेष्म में चिपटी हुई तुच्छ मक्खी को छुटना जैसे दुष्कर है वैसे तुच्छ मात्र नामधारी पुरुष को स्त्री के संसर्ग से आत्मा को छोड़ना निश्चय ही अति दुष्कर है। जो स्त्री वर्ग में सर्वत्र विश्वास नहीं करता है और सदा अप्रमत्त रहता है, वह ब्रह्मचर्य को पार कर सकता है। इससे विपरीत प्रकृतिवाला पार को प्राप्त नहीं कर सकता है। स्त्रियों में जो दोष होते हैं, वे नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा अधिक बल-शक्ति वाले पुरुषों में स्त्रियों से अधिकतर दोष होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य का रक्षण करने वाले पुरुषों को जैसे स्त्रियाँ निंदा का पात्र हैं, वैसे ब्रह्मचर्य का रक्षण करने वाली स्त्रियों को पुरुष भी निंदा का पात्र है। और इस पृथ्वी तल में गुण से शोभायमान अति विस्तृत यश वाली तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, गणधर आदि सत्पुरुषों को जन्म देने वाली, देवों की सहायता प्राप्त करनेवाली शीलवती, मनुष्य लोक की देवियाँ समान चरम शरीरी और पूजनीय स्त्रियाँ भी हुई हैं, ऐसा सुना जाता है कि जो पुण्यशाली स्त्री पानी के प्रवाह में नहीं बहतीं, भयंकर जलती हुई अग्नि से जो नहीं जलती हैं और सिंह तथा हिंसक प्राणी भी उनको उपद्रव नहीं कर सके हैं। इसलिए सर्वथा ऐसा कहना योग्य नहीं है कि-एकान्त से स्त्रियाँ ही शील रहित होती हैं, किंतु इस संसार में मोह के वश पड़े हुए सर्व जीव भी दुःशील हैं। इतना भेद है कि वह मोह प्रायः कर स्त्रियों को उत्कट होता है। इस कारण से उपदेश देने की अपेक्षा से इस तरह स्त्रियों से होने वाले दोषों का वर्णन किया जाता है और उसका चिंतन करते पुरुष विषयों में विरागी बनता है। वे पुण्यशाली हैं कि जो स्त्रियों के हृदय में बसते हैं और वे देवों को भी वंदनीय हैं कि जिनके हृदय में स्त्रियाँ नहीं बसती हैं। ऐसा चिंतनकर भाव से आत्मा के हित को चाहने वाले जीवों को इस विषय में अत्यंत अप्रमत्त रहना चाहिए। इत्यादि क्रम से शिष्यों को हित शिक्षा देकर, अब वह आचार्य शास्त्र नीति से प्रवर्तिनी को भी हित शिक्षा देते हैं ।।४४६४।। प्रवर्तिनी को अनुशास्ति :
___यद्यपि तुम सर्व विषय में भी कुशल हो फिर भी हमें हित-शिक्षा देने का अधिकार है, इसलिए हे महायश वाली! तुमको हितकर कुछ कहता हूँ। समस्त गुणों की सिद्धि करने में अति महान यह प्रवर्तिनी पदवी तुमने प्राप्त की है, इसलिए इसके द्वारा उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। तथा सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप ज्ञान में तथा शास्त्रोक्त कार्यों में शक्ति अतिरिक्त भी तुम्हें निश्चय उद्यम करना। पाप से भी किये हुए शभ कार्यों की प्रवृत्ति प्रायःकर संदर फल वाली होती है, फिर संवेगपर्वक की हई शभ प्रवत्ति के लाभ का कहना ही क्या? इसलिए संवेग में प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि दीर्घकाल तपस्या की हो, चारित्र पालन किया हो और श्रुतज्ञान का अध्ययन किया हो, परंतु संवेग के रंग बिना वह सब निष्फल है। इसलिए उसका ही उपदेश देता हूँ। तथा इन साध्वियों को सम्यग् ज्ञानादि गुणों की प्रवृत्ति कराने से निश्चय जैसे तुम सच्ची प्रवर्तिनी बनों वैसे प्रयत्न करना। सौभाग्य, नाट्य, रूप आदि विविध विज्ञान के राग से तन्मय बनी लोक की दृष्टि जैसे रंग मण्डप में नाचती नटी के ऊपर स्थिर होती है वैसे हे भद्रे! सम्यग् ज्ञान आदि अनेक प्रकार के तुम्हारे सद्धर्म रूपी गुणों के अनुराग से रागी बनी हुई विविध देश में उत्पन्न हुई, विशुद्ध कुल में जन्मी हुई और पिता-माता को छोड़कर आयी हुई साध्वियाँ भी तुम्हें प्राप्त हुई, प्रवर्तिनी पद से रमणीय बनीं, तुम्हारा आश्रय करके रही हैं। वह नटी जैसे निश्चय विनय वाली-मधुर स्नेह वाली है, अपनी दृष्टि से प्रेक्षकों को देखती और कहे हुए सौभाग्यादि, विज्ञानादि
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